Sunday, April 27, 2014

जब-जब रात उदास हुई है...

जब-जब रात उदास हुई है पास तुम्हारे न आने पर, 
ख़ाब का तकिया रख आया है चाँद नींद के सिरहाने पर. 

फ़िर साँसों की मध्यम लय पर अरमानों ने आह भरी, 
तल्ख़ हक़ीक़त लो फ़िर जीती सुर्ख गुलाबी अफ़साने पर. 

धूप में थोड़ा सीलापन और खुश्क लबों पर मौसिकी, 
बिन तेरे दिन गुजरा जैसे शाम खिली पर विराने पर.

दिल ने मुझसे बिना ईजाज़त अब तक तुझको याद किया, 
यही दुआ है कि न बदले कल यह मेरे समझाने पर.
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©: राकेश जाज्वलय. 26.04.14

Saturday, March 29, 2014

समय (दो कविताएं )

धागा 
समय के साथ 
कमज़ोर ही होता है 
यद्यपि, 
फिर भी... 

यक़ीन है 
कि... 
थामे रखेगा 
इसके दोनों सिरे 
अपने दोनों हाथों से 
समय ही. (1)
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लौटेगा नहीं 
मगर..
गुजरेगा
फिर -फिर कर 
हर ईक बिन्दु से 

समय, 
कि.. 
अपनी ही 
परिधी के बाहर 
नही है गति 
समय की भी. (2)

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© राकेश जाज्वल्य.

31.01.2014

Sunday, March 9, 2014

Muktak ...

लेते हैं नमी आँखों से लेकिन प्यार देते हैं.  
हैं ऐसे दर्द भी जो जिंदगी सँवार देते हैं.  
नयापन लौटकर देखो उसी मौसम में आता है,  
कि जिसमें पेड़ भी सब पत्तियाँ उतार देते हैं. 
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राकेश जाज्वल्य. 14.02.2014


बचपन, बिल्लस और उम्मीदें..

 
दुनिया अब पहले जैसी नही रही, न रहे... मगर महाभारत से लेकर आज के भारत तक किसी भी दौर में बचपन को यह दुनिया न तो कभी व्यर्थ लगी है और न ही कभी लगेगी. दुनिया बदली तो शहर, गाँव, मुहल्ले, घर और रिश्ते भी सिमट गए ... वो आँगन भी सिमट गया जहाँ खेलों के साथ-साथ भावी नागरिकों के मध्य स्वास्थ्य, समझ और सद्भाव भी सहज ही विकास पाता था. घरों में एक आंगन की कमी गहरे अर्थों में जीवन में उतर आई कई कमियों की ओर संकेत करती है. मगर मौसमों की तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी बचपन के फूल हमेशा अपने खिलने की जगहें तलाश ही लेते हैं. आँगन नहीं तो क्या हुआ.. छतें ही सहीं.
    स्कूलों में, कमरों के भीतर कम्पयूटर पर विडियो गेम्स अपनी जगह, लेकिन.. खुली छत पर "बिल्लस" का मज़ा लेते बच्चे उम्मीदों के नए सूरज उगा देते हैं. 

: राकेश जाज्वल्य. 94255 73812
   02.03.2014
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Wednesday, January 15, 2014

रूपांतरण ...


"विचार वस्तु बन जाते हैं "
.
.
देखना....  ईक दिन...
मैं.... तुम हो जाऊंगाँ. 

© राकेश जाज्वल्य. 
11.01.2014

Thursday, May 2, 2013

लम्हें कुछ.....ek nayi ghazal.


लम्हें कुछ गुज़र कर भी गुज़रते नहीं कभी.
कुछ गहरी चोटों के निशां उभरते नहीं कभी

कंकड़ कोई, तिनका कोई या याद किसी की,
मोती यूँ ही निगाह से...... झरते नहीं कभी.

दरिया- - इश्क की भी रवानी है अनोख़ी 
जो डूबते नहीं वो......... उबरते नहीं कभी.

"लहना" हो या हो "देव" वो बचपन की कहानी,
किरदार अपने बीच के..... मरते नहीं कभी.

पहुंचे जो गाल तक भी न आँखों की कोर से,
वो ख़्वाब उँगलियों से ..... संवरते नहीं कभी.

: © राकेश जाज्वल्य
( सन्दर्भ : . लहना सिंह - "उसने कहा था.", चंद्रधर शर्मा गुलेरी
. देव-  "देवदास" शरत चन्द्र चटोपाध्याय )

Thursday, April 25, 2013

तेरी ओर.......


तेरी ओर   ...... 
मेरे ख्याल  के   
पहला कदम उठाने  
और ......रखने के बीच का   
थोडा सा वक्त .. 
और ... 
थोड़ी सी ....दूरी...ही..  
मुहब्बत  है  ...शायद !  
और हाँ ... 
ज़िन्दगी भी !!! 

:
राकेश जाज्वल्य. 

20.04.2013