सहमे - सहमे ना करो बात, जरा खुल के कहो।
दिन क्यूँ लगने लगी है रात, जरा खुल के कहो।
अभी डोर इन रिश्तों के टूटे भी नहीं हैं,
अभी दामन इन हाथों से छूटे भी नहीं हैं,
अभी आंधी इन राहों में आई भी नहीं है,
अभी घोर बदलियाँ भी छाई ही नहीं है,
अभी काबू में हैं हालत, जरा खुल के कहो।
सहमे- सहमे ना करो बात, जरा खुल के कहो।
इससे पहले की किसी से कोई प्यार ना रहे,
इससे पहले की ख़ुशी का इन्तेजार ना रहे,
इससे पहले की दिल किसी का तलबगार ना रहे,
इससे पहले की आँगन में बहार ना रहे,
इससे पहले की बिगड़े बात, जरा खुल के कहो,
सहमे - सहमे ना करो बात, जरा खुल के कहो।
फिर से क्यूँ ना रिश्तों को हम नया-सा मोड़ दें,
फिर से क्यूँ ना हम ख्वाबों से नाता जोड़ लें,
फिर से क्यूँ ना कुछ बंधन हम हंस के तोड़ दें,
फिर से क्यूँ ना हम दुनिया दिल के बाहर छोड़ दे,
फिर से क्यूँ ना हो शुरुआत, जरा खुल के कहो,
सहमे - सहमे ना करो बात, जरा खुल के कहो।
: राकेश जाज्वल्य
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यहाँ हैं.. मेरी ग़ज़लें और कवितायेँ...... कितनी भी कोशिश करें, चाहें..पी लें..... सूखती नहीं मगर..खारे पानी की झीलें.
Monday, May 31, 2010
Saturday, May 29, 2010
किसकी निंदिया उधार है यारा.
है नशा या खुमार है यारा.
ओये तेरे की ! ये प्यार है यारा.
उसकी आँखों में जो ना धड़का तो,
दिल का होना बेकार है यारा.
सुबह तलक ये रात रोती रही,
किसकी निंदिया उधार है यारा.
वो तेरा नाम लेके मरता है,
जिसपे दुनिया निसार है यारा.
सड़कों जैसा ही दिल के भीतर भी,
कितना गर्दो-गुबार है यारा.
बरसीं बारिश की चंद ही बूंदें,
ग़म का बादल बीमार है यारा.
ख्वाब आते हैं, चिटिओं की तरह,
कहीं आँखों में दरार है यारा.
: राकेश जाज्वल्य
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ओये तेरे की ! ये प्यार है यारा.
उसकी आँखों में जो ना धड़का तो,
दिल का होना बेकार है यारा.
सुबह तलक ये रात रोती रही,
किसकी निंदिया उधार है यारा.
वो तेरा नाम लेके मरता है,
जिसपे दुनिया निसार है यारा.
सड़कों जैसा ही दिल के भीतर भी,
कितना गर्दो-गुबार है यारा.
बरसीं बारिश की चंद ही बूंदें,
ग़म का बादल बीमार है यारा.
ख्वाब आते हैं, चिटिओं की तरह,
कहीं आँखों में दरार है यारा.
: राकेश जाज्वल्य
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Thursday, May 27, 2010
* इक बड़ी गोल-गोल टाइप की कविता*
यह कविता जरा हलके -फुल्के मूड में लिखी है :)
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चन्दा गोल, सूरज गोल,
पृथ्वी घुमे गोल- गोल,
धरती भी गोल है।
शुन्य गोल, चक्के गोल,
घडी के काँटे गोल-गोल,
विज्ञान गोल है।
फूल गोल, हैं तने गोल,
फलियों में दाने गोल-गोल,
प्रकृति गोल है।
सिक्के गोल, रोटी गोल,
पेट भी सबके गोल-गोल,
हर भूख गोल है।
आँखें गोल, रातें गोल,
बातें सबकी गोल- मोल,
दुनिया ही गोल है।
इस वर्तुल दुनिया में,
चाहे चलें कहीं से,
घूम के सबको गोल-गोल,
वहीँ आना है।
पास तुम्हारे, मैं भी फिर-फिर,
लौट आता हूँ जानां...क्यूंकि,
गोल तुम्हारे चेहरे पर ही,
मेरा भी दिमाग गोल है।
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: राकेश जाज्वल्य
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चन्दा गोल, सूरज गोल,
पृथ्वी घुमे गोल- गोल,
धरती भी गोल है।
शुन्य गोल, चक्के गोल,
घडी के काँटे गोल-गोल,
विज्ञान गोल है।
फूल गोल, हैं तने गोल,
फलियों में दाने गोल-गोल,
प्रकृति गोल है।
सिक्के गोल, रोटी गोल,
पेट भी सबके गोल-गोल,
हर भूख गोल है।
आँखें गोल, रातें गोल,
बातें सबकी गोल- मोल,
दुनिया ही गोल है।
इस वर्तुल दुनिया में,
चाहे चलें कहीं से,
घूम के सबको गोल-गोल,
वहीँ आना है।
पास तुम्हारे, मैं भी फिर-फिर,
लौट आता हूँ जानां...क्यूंकि,
गोल तुम्हारे चेहरे पर ही,
मेरा भी दिमाग गोल है।
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: राकेश जाज्वल्य
Wednesday, May 26, 2010
उम्र पूरी घुल गयी है....
अब लट कोई माथे पर झूलती ही नहीं है।
ये गिरह तेरी यादों की खुलती ही नहीं है।
भूला हूँ मैं हर बात, तेरी याद भुलाने,
क्या चीज़ मुहब्बत है, भूलती ही नहीं है।
मैंने कभी सोना, कभी यह ज़िस्म रखा था,
रूह तुमने जो रखा है, वो तुलती ही नहीं है।
है दर्द की डली सी, इस जुबाँ पे ज़िन्दगी,
उम्र पूरी घुल गयी है, ये घुलती ही नहीं है।
ऊँगली दिखा के तुमने जो स्टेचू कह दिया,
हिलती नहीं ये ज़िन्दगी, डुलती भी नहीं है।
पलकों पे यूँ कभी किसी का नाम ना लिखना,
इक बार लिख गयीं तो धुलती ही नहीं है।
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: राकेश जाज्वल्य
ये गिरह तेरी यादों की खुलती ही नहीं है।
भूला हूँ मैं हर बात, तेरी याद भुलाने,
क्या चीज़ मुहब्बत है, भूलती ही नहीं है।
मैंने कभी सोना, कभी यह ज़िस्म रखा था,
रूह तुमने जो रखा है, वो तुलती ही नहीं है।
है दर्द की डली सी, इस जुबाँ पे ज़िन्दगी,
उम्र पूरी घुल गयी है, ये घुलती ही नहीं है।
ऊँगली दिखा के तुमने जो स्टेचू कह दिया,
हिलती नहीं ये ज़िन्दगी, डुलती भी नहीं है।
पलकों पे यूँ कभी किसी का नाम ना लिखना,
इक बार लिख गयीं तो धुलती ही नहीं है।
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: राकेश जाज्वल्य
तेरी बातें पकी निम्बोली सी....
कभी गुस्सा कभी ठिठोली सी।
तेरी बातें पकी निम्बोली सी।
मेरा चेहरा हुआ तेरा चेहरा,
मेरी बोली भी तेरी बोली सी।
जाने क्या देखा तुमने आँखों में,
हुई रंगीन तुम तो होली सी।
चाँद भी खिलखिला के हंस बैठा,
तू भी शरमाई बन के भोली सी।
बजी पायल तुम्हारी दुल्हन सी,
हुई बाहें भी मेरी डोली सी।
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: राकेश जाज्वल्य
तेरी बातें पकी निम्बोली सी।
मेरा चेहरा हुआ तेरा चेहरा,
मेरी बोली भी तेरी बोली सी।
जाने क्या देखा तुमने आँखों में,
हुई रंगीन तुम तो होली सी।
चाँद भी खिलखिला के हंस बैठा,
तू भी शरमाई बन के भोली सी।
बजी पायल तुम्हारी दुल्हन सी,
हुई बाहें भी मेरी डोली सी।
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: राकेश जाज्वल्य
Saturday, May 22, 2010
नमी......
***
गिराये हैं ख्वाब गीले... पीले पत्तों की आड़ में,
आज फिर दरख्तों तले मिटटी में नमी है।
: राकेश जाज्वल्य.
गिराये हैं ख्वाब गीले... पीले पत्तों की आड़ में,
आज फिर दरख्तों तले मिटटी में नमी है।
सदियाँ हुईं ...सुना है.....यहाँ सुखा नहीं पड़ा।
***: राकेश जाज्वल्य.
Thursday, May 20, 2010
सुना है इश्क - मुहब्बत में भी लू लगती है....
मुझको अक्सर गर्म हवा सी तू लगती है।
सुना है इश्क़-मुहब्बत में भी लू लगती है।
चाँद, समंदर, बारिश, कलियाँ, तितली, धूप,
मुझको हर इक शय में तू ही तू लगती है।
पेड़ों को पानी देना जब से सब भूले,
तब से देखा तपी- तपी सी भू लगती है।
चाँद की आँच में सपनों के भूने दानों सी,
घर भर में फैली तेरी ख़ुश्बू लगती है।
जब भी दिख जाती है धानी चुनरी ओढ़े,
मुझको तू मेरी मम्मी की बहू लगती है।
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: राकेश जाज्वल्य
सुना है इश्क़-मुहब्बत में भी लू लगती है।
चाँद, समंदर, बारिश, कलियाँ, तितली, धूप,
मुझको हर इक शय में तू ही तू लगती है।
पेड़ों को पानी देना जब से सब भूले,
तब से देखा तपी- तपी सी भू लगती है।
चाँद की आँच में सपनों के भूने दानों सी,
घर भर में फैली तेरी ख़ुश्बू लगती है।
जब भी दिख जाती है धानी चुनरी ओढ़े,
मुझको तू मेरी मम्मी की बहू लगती है।
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: राकेश जाज्वल्य
Monday, May 17, 2010
इक त्रिवेणी..
Friday, May 14, 2010
फूलों वाला चाँद टंगा था......
मुझको मेरे दिल ने ठगा था।
वरना तो मैं रचा-पगा* था।
उसकी मूंदी पलकों में भी,
जैसे कोई ख़्वाब जगा था।
रात के जुड़े में इक पूरा,
फूलों वाला चाँद टंगा था।
इश्क में मरने से कुछ थोडा,
जीने का अहसास जगा था।
सुबह तलक लौटा लायेगा,
सूरज लेकर चाँद भगा था।
*रचा-पगा = पारंगत
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: राकेश जाज्वल्य
वरना तो मैं रचा-पगा* था।
उसकी मूंदी पलकों में भी,
जैसे कोई ख़्वाब जगा था।
रात के जुड़े में इक पूरा,
फूलों वाला चाँद टंगा था।
इश्क में मरने से कुछ थोडा,
जीने का अहसास जगा था।
सुबह तलक लौटा लायेगा,
सूरज लेकर चाँद भगा था।
*रचा-पगा = पारंगत
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: राकेश जाज्वल्य
Wednesday, May 5, 2010
घाव फिर रिसने लगा......
मैं मुहब्बत बन गया हूँ, डर सा हूँ मैं.....
त्रिवेणी के लिए lines लिखी थी ......बदल कर ग़ज़ल हो गयीं .....
तुम्हारी मुहब्बत को यूँ तरसा हूँ मैं.
बनकर ओस निगाहों से बरसा हूँ मैं.
कुछ खिड़कियाँ हैं, दरवाजें हैं, दीवारें भी,
कब तुम्हारे बिना इक घर सा हूँ मैं.
मुझको क़त्ल करने लगी हैं चौपालें भी,
मैं मुहब्बत बन गया हूँ, डर सा हूँ मैं.
तुम जो चाहो तो भी ना रुक पाउँगा,
हो गया हूँ पैदा अब तो ज़र सा हूँ मैं.
कोई वादा था तेरा फिर आऊंगा,
तब से राहों पर थमा हूँ, अरसा हूँ मैं.
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राकेश जाज्वल्य.
तुम्हारी मुहब्बत को यूँ तरसा हूँ मैं.
बनकर ओस निगाहों से बरसा हूँ मैं.
कुछ खिड़कियाँ हैं, दरवाजें हैं, दीवारें भी,
कब तुम्हारे बिना इक घर सा हूँ मैं.
मुझको क़त्ल करने लगी हैं चौपालें भी,
मैं मुहब्बत बन गया हूँ, डर सा हूँ मैं.
तुम जो चाहो तो भी ना रुक पाउँगा,
हो गया हूँ पैदा अब तो ज़र सा हूँ मैं.
कोई वादा था तेरा फिर आऊंगा,
तब से राहों पर थमा हूँ, अरसा हूँ मैं.
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राकेश जाज्वल्य.
बालों चाँदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ......
रातों को माजी संग बैठा, अक्सर तारे तोड़ता हूँ।
बालों चाँदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ।
जिनके पहले पन्नो पर, कभी फूल बनाया था तुमने,
उन ख़्वाब-क़िताब निगाहों में, उम्र के पन्ने मोड़ता हूँ।
बस तेरे ही ख्वाब बुने, पलकों के ताने-बाने में,
उन यादों के रेशे ले, अशआर ग़ज़ल में जोड़ता हूँ।
दौर कोई हो, अपनेपन का दौर हमेशा रहता है,
नाहक बदले दस्तूरों पर, ठंडी साँसे छोड़ता हूँ।
जब भी धरा की ख़ुश्बू ले, वो मेरे आँगन आती है,
सूखे - पीले पत्ते गिराकर, मैं हरियाली ओढ़ता हूँ।
रातों को माजी संग बैठा, अक्सर तारे तोड़ता हूँ।
बालों चांदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ।
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: राकेश जाज्वल्य
बालों चाँदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ।
जिनके पहले पन्नो पर, कभी फूल बनाया था तुमने,
उन ख़्वाब-क़िताब निगाहों में, उम्र के पन्ने मोड़ता हूँ।
बस तेरे ही ख्वाब बुने, पलकों के ताने-बाने में,
उन यादों के रेशे ले, अशआर ग़ज़ल में जोड़ता हूँ।
दौर कोई हो, अपनेपन का दौर हमेशा रहता है,
नाहक बदले दस्तूरों पर, ठंडी साँसे छोड़ता हूँ।
जब भी धरा की ख़ुश्बू ले, वो मेरे आँगन आती है,
सूखे - पीले पत्ते गिराकर, मैं हरियाली ओढ़ता हूँ।
रातों को माजी संग बैठा, अक्सर तारे तोड़ता हूँ।
बालों चांदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ।
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: राकेश जाज्वल्य
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