Thursday, May 28, 2009

सुनहरी धूप

चलो अपने चेहरे से चेहरा हटा लें,
बाहर भी भीतर की दुनिया सजा लें।
सपनों की थोड़ी बातें करें, आज,
झूठ से, सच से दूरी बना लें।
कोई गीत लिखें या कविता कहें,
शब्दों को, भावों को गले लगा लें।
फूलों को छुएं, बच्चों से खेलें,
आँगन को फिर से अपना बना लें।
गुड्डू को, राजू को फिर से पुकारें,
रूठी हुई रानू को फिर से मना लें.
भैया से कह दें के बाबा बुलाते हैं,
फिर परदे में छुपकर उनको डरा दें,
गर्मी की दोपहर में चुपके से भागें,
गुल्लक के पैसों से पतंगें उड़ा लें.
कालेज में अब भी है, तिवारी जी की कैंटीन,
चलो शानू-मानू को समोसे दिला दें.
निन्नी को, निशु को, राशि को- आशी को,
पढ़ते ही रहने की अब न सज़ा दें।
सप्ताह भर की लेकर छुट्टी ऑफिस से,
घर में रहें और घर का मज़ा लें.
माना के आज अपने साथ नहीं माँ,
तो बच्चों को उनकी कहानी सुना दें.
समय जो बीता तो लौटता नहीं कभी,
इसके हर पल में ज़िन्दगी बिता दे.
:राकेश जाज्वल्य

बचपन है नींदें है

बचपन है, नींदे हैं, कहानियाँ हैं,
जवानी है, रतजगे हैं, नादानियाँ हैं।

किसके सपने मुझे जगातें हैं रात भर,
मेरे जिस्म में यह किसकी निशानियाँ हैं।

दिल तो वाकिफ है, सारी नाराजगियों से मगर,
इन लबों को खुलने में कुछ परेशानियाँ हैं।

आँखों में भी देखा, थोडी नमीं सी थी,
किस्मत की यह सारी बदमाशियाँ हैं।

सच है अब जीना यहाँ आसां नहीं रहा,
पर मौत की भी अपनी दुश्वारियां हैं।

जाते मुझको वह कुछ तो दे गया,
मेरे हिस्से में अब उसकी तन्हाईयाँ हैं.
:
rakesh jajvalya.