Monday, April 19, 2010

दो त्रिवेणियाँ.....


दो त्रिवेणियाँ - तीन पंक्तियों की छोटी सी रचना- प्रस्तुत है,
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बरसात .....
यूँ तुम्हारी मुहब्बत को तरसा हूँ अभी.
बनकर ओस निगाहों से बरसा हूँ अभी.

चेहरा तुम्हारा भी कुछ भीगा-भीगा लगता है.

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2. घाल -मेल......

खुद को दी आवाज़, कभी जब मैंने तुम्हे पुकारा,
तेरा चेहरा आया नज़र, जब मैंने खुद को निहारा.

मुहब्बत का खेल है....बड़ा निराला घाल-मेल है....

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: राकेश जाज्वल्य.

Thursday, April 15, 2010

बाबू जी.…


उनकी यादों की भी कुछ रंगत अलग है.
ऐसा लगता है के धरती पर फ़लक है.

उनके साए में खिले है ख़्वाब कितने,
लोग कहतें है बड़ी सोंधी महक है.

उन निगाहों से उगा करता था कल जो,
आज उस सूरज में भी गीली दहक है.

मैं भी अब लड़ने लगा दुनिया की ख़ातिर,
धडकनों में उनके पैरों की धमक है.

उनके हर इक याद से फैले उज़ाला,
उनकी हर इक बात जुगनू की चमक है.

एक आँगन, थोड़े पौधे, हँसते चेहरे,
बाबू की यादों में बापू की झलक है.
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: राकेश जाज्वल्य.

Tuesday, April 6, 2010

दीमक अपनी यादों की..... .


निगाहें आज मैं अपनों से मोड़ आया हूँ.
ये किस उम्मीद में घर अपना छोड़ आया हूँ.

लगाया था कभी माँ ने जो पौधा तुलसी का,
मै उस यकीं की सभी पत्तियाँ तोड़ आया हूँ.

वो मेरा घर के हो जैसे किताब गज़लों की,
उसमें दीमक अपनी यादों की छोड़ आया हूँ.

हर इक रात जमा करते थे जिसमे सपने,
मैं वो गुल्लक भी पिता की फोड़ आया हूँ.

हंस के खाई थी कसम जिसके चबूतरे हमने,
उसी पीपल की मैं इक डाली मरोड़ आया हूँ.
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: राकेश जाज्वल्य.