Monday, November 30, 2009

आतंक

आतंक
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वे हँसते रहे,
लोग मरते रहे,
लहू बहता रहा.

गिद्ध से पैने नाखूनों से,
शरीर पर लकीरें,
बहता हुआ लहू..
क्या भाई का है..?
या भाईजान का..?
सब सोचते रहे,
वे हँसते रहे।

कोई चीखा है,
मैंने सुना,
आपने सुना,
सब सुनते रहे,
वे हँसते रहे।

मरते रहेंगे लोग,
सड़ती रहेंगी लाशें,
वे अगर चुप न हुए..
तो मौत के इंतज़ार में,
हम सब भी हँसने लगेंगे.
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: राकेश जाज्वल्य.

Friday, November 27, 2009

अगर किसी दिन........राशि की नई रचना.

राशि की नई कविता प्रस्तुत है, दिन भर की उसकी चह-चहाहटों और उछल-कूद के बीच उसकी कवितायेँ घर भर में धूप की तरह बिखरती रहती हैं. उसकी कल्पनाओं के संसार में आपका भी स्वागत है......


अगर किसी दिन….
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अगर किसी दिन.........
मेरे घर के आँगन में बर्फ गिरेगी,
आँगन के फूलों को
बहुत ठण्ड लगेगी.
फूल आयेंगे घर के अंदर,
और बाहर जायेंगे,
अपने अपने छत लेकर.
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: निर्झरा राशि
२३ नवम्बर २००९.

ग़ज़ल लिखेंगे, गीत लिखेंगे......

ग़ज़ल लिखेंगे, गीत लिखेंगे.
तुझको ही मनमीत लिखेंगे.

मुह्हबत का है खेल अनोखा,
दिल हारेंगें, जीत लिखेंगे.

जिसे जमाना दुहरायेगा,
प्रीत की ऐसी रीत लिखेंगे.

सर्द हवाओं में उंगली से,
गयी जो बातें बीत, लिखेंगे.

चेहरा तेरा गुलाब हुआ, अब
हम मौसम में शीत लिखेंगे.
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: राकेश जाज्वल्य.

खुद से बदला, अब इस कदर भी......

खुद से बदला,अब इस कदर भी लिया जायेगा.
बिना तेरे भी कई रात जिया जायेगा.

कल जो देखा था मैंने,चाँद कुछ अधुरा था.
तेरी बिंदिया मिला के चाँद सिया जायेगा.

कहने-सुनने की जो बातें है,सब कहें मुझसे,
तुझ पे हर तंज,यहाँ दिल पे लिया जायेगा.

दें कसमें मुझे,समझाएं भी, तो क्या हासिल,
दिल जो मैं दे चूका,वापस ना लिया जायेगा.

कहीं ये हो ना हो, पर प्यार में जरुरी है,
जो भी रूठे, उसे बाँहों में लिया जायेगा.
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: राकेश जाज्वल्य.

Wednesday, November 25, 2009

बस्ती का अगर एक भी शख्स ......

बस्ती का अगर एक भी शख्स परेशान है.
तो हो ख़बर, आफ़त में अब हाकिम की जान है.

बस पुतलियाँ हिलती हैं बेज़ुबान ज़िस्म में,
बिस्तर पर आज कल मेरा हिन्दुस्तान है.

यह भी नहीं पता के कहाँ कौन रह रहा,
किस बात का फिर तू भला, मालिक-मकान है.

मर्जी तुम्हारी, रोओ या चिल्लाओ जोर से,
इन मुर्तिओं के पास कहाँ आँख- कान है.

पैनी करो कलम मगर तलवार भी रखो,
है चक्र भी, ग़र अनसुनी बंशी की तान है.

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: राकेश जाज्वल्य.

Thursday, November 12, 2009

आज-कल की चीजें....

आज-कल की चीजों का
कोई भरोसा नहीं.

शर्ट की जेब पर फैला
यह लाल रंग देखकर,
बस यही ख्याल आता है.

शर्ट की जेब में
एक छोटी डायरी,
कुछ रसीदें,
थोडा सा चिल्हर,
लाल-नीली दो पेनें
और हाँ,
तुम्हारा
एक पुराना ख़त भी
रख लिया था मैंने,
घर से निकलते-निकलते.

जरा देखूं तो सहीं...

यह मेरा पेन...तो..
बिलकुल ठीक है,
तो फिर..........
कमबख्त,
यह दिल ही रिसा होगा.

सच ही है !
अब कोई भरोसा नहीं रहा,
आज- कल की चीजों का.
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: राकेश जाज्वल्य.

Tuesday, November 10, 2009

हसरत..../ हसरत....

हसरत...
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कातिलों !
मेरे सोने का
इन्तेज़ार किया होता,
जान भले ही जाती,
ख्वाब तो रह जाते.
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hasrat..
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katilo.n!
mere sone ka
intezaar kiya hota,
jaan bhale hi jaati,
khwab to rah jaate.
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: राकेश.

शिकायत........

मेरे दोस्त, मेरा ज़ख्म खुला छोड़ने से पहले,
मेरे होंठ सी गए थे, साथ छोड़ने से पहले.

है ज़िन्दगी से मुझको बस इतनी शिकायत,
क्यूँ तोड़ दीं उम्मीदें, दम तोड़ने से पहले.

थी बात महज़ वक्त की, जिंदा था शहर में,
मिल तो सभी से आया, घर छोड़ने से पहले.

नए हुजुर कुछ अलग इन्साफ तलब थे,
खिंच लेते थे जुबाँ, कुछ बोलने से पहले.

जंगल में गूँजी चीख़ महज़ चीख़ नहीं थी,
लगाकर गयी थी आग, जहाँ छोड़ने से पहले.
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: राकेश जाज्वल्य.

Thursday, November 5, 2009

तुम भी ना.......!

आसमान,
सुबह तलक था जो
कोरे कागज के जैसा,
शाम होते ही ,
कहीं से नीला और
कहीं- कहीं से गुलाबी
नज़र आता है,
तुमने जरुर
आज फिर,
नेलपालिश लगी
उँगलियों से,
आसमान में,
मेरे ख़त के पुर्जे
उड़ाए है.
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:राकेश जाज्वल्य.

Wednesday, November 4, 2009

सड़क के इस छोर पर......

घर के सामने से जाती हुई
सीधी सड़क पर
दूर तक जाती हैं नज़रें,
जब तलक के
जाने पहचाने चेहरे
बदल नहीं जाते.
धुंधली आकृतियों में.

स्वप्न आँखों में
और होठों पर
ढेर सारे वादे धरे
इक चेहरा
निहारती रही हूँ मैं.

कई बरसों से,
इस सड़क के किनारे के,
इस घर के दरवाजे पर
लौटते कदमों की
कोई आहट नहीं सुनी मैंने.
और अब
बीते बरस तुम.

फिर वही स्वप्न
और फिर वैसे ही वादे लिए.

लौट आओ बेटा!
इस सड़क का
कोई दूसरा छोर नहीं है.
यह सड़क
लौटती नहीं कभी.

इस सड़क पर,
दूर की कोई धुंधली आकृति
पास आकर बदलती नहीं
जाने-पहचाने चेहरे में.

लौट आओ,
के समय रहते
पहचान सकूँ तुम्हें,
लौट आओ,
इससे पहले के
सड़क का धुंधलापन
मेरी निगाहों में उतर आये.
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: राकेश जाज्वल्य.

Tuesday, November 3, 2009

मेरे करीब तुम आये हो..

मेरे करीब तुम आये हो..
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मेरे करीब तुम आये हो, अब के बरसों में.
के जैसे ख्वाब सा महका हो, पीली सरसों में.

मेरी मुंडेर पे कागा कई बरसों बोला,
झूठा वादा था की मिलते हैं कल या परसों में.

वो तुम ही थे जिसे ढूंढा था लकीरों में कभी,
वो तुम ही हो की अब मिलते हो गीली पलकों में.

था इक निगाह का मसला, जो कभी हल ना हुआ,
दबी है गहरी उदासी इक, मन की परतों में.

वो आग थी के धुँए का हुआ भरम मुझको,
गीली-गीली सी मुहब्बत थी चुप के परदों में.
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: rakesh jajvalya.