Thursday, April 26, 2012

जी रहा हूँ मैं, अब भी तुम्हारे बिन,
क्या अब भी सोचती हो-" तुम्हे याद नहीं करता" ?


: राकेश. 26.04.2012

Saturday, April 21, 2012

और.. क्योकि हम किसी भी तरफ नहीं.........


यह सुबहो-शाम की नाज़ुक मिज़ाजी के दौर से बाहर आने का वक्त है.
गर्म हवाओं ने पेशानी पर लिखी तक़दीर के सफ्हे झुलसा दिए हैं,
मेरी जाँ! .. यह भरी दोपहरी अब आदमी से आदम में बदल जाने का वक्त है.

हुकुम है आकाओं का..बंदूकों और सिक्कों से नयी दुनिया बनाई जाये.

हुकुम रहनुमाओं का भी है...वोटों और नोटों से हर राह सजाई जाये.

जंगलो में मिटटी के नीचे रोटियां दबायीं है किसी ने,
यहाँ के पेड़ों पर ख्वाबों के चीथड़े लटकते है.

कि...नशा अब यहाँ सल्फी में नहीं...लहू में है.

यहाँ की हवाओं ने भी अब अपने रंग बदल लिए हैं.....
मेरी जान!.. यह सुनहरी शाम नहीं...के सूरज डूब रहा हो क्षितिज पर,
यह सांसों के रुकने से हरीतिमा के चेहरे पर उभर आई लालिमा है.

बावजूद ... .. अजगरो के जबड़ों में फंसे हम... अक्सर हिरणों की हँसी हँसते हैं,
कल रात हम... अपने ही आँगन में......
महुआ की उदास गंधों के साथ,
...कटे, पके..... और .... खा लिए गए.

अब यहाँ चैन से जीना मुश्किल है....और...चैन से मरना दूभर.


सूखे-भूरे पत्तों पर बूटों की धीमी आवाजों और कोयल की तेज़ कूकों के बीच..जैसे सारे अंतर मिट गए हों... जागने और सोने के, हँसने और रोने के, काटने और बोने के.

और.. क्योकि हम किसी भी तरफ नहीं... इसलिए... मारे जायेंगे... दोनों ही तरफ से.

: राकेश  जाज्वल्य. २५.०३.२०११.
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Monday, April 16, 2012

झूठ है...... कि तुझ से कोई वास्ता नहीं,
इन दिनों मुझको मगर, खुद का पता नहीं.


तुम मिल जाओ अगर मुझको... तो  खुद  का  पता मिले.

: राकेश जाज्वल्य. 16.04.2012
तुम नहीं आये.... तो सोचता है..... आ नहीं पाए ,
इस दिल को भी ख़ुश-फहमियों के हज़ार बहाने हैं.


: राकेश जाज्वल्य. 16.04.2012.