Tuesday, December 14, 2010

दिल इक ऐसा गुल्लक...



किसने जोड़े हैं गिन गिन के.
तस्वीरों के पीछे तिनके.

 और भला क्या है आँखों में,
कुछ उम्मीदें अच्छे दिन के.

 जो सौदा आँखों का, उसमे
कहाँ बही-खाते धन-ऋण के.

 दादी और नानी की कहानी,
बुद्धू-बक्सा ले गया  छीन  के.

 अपने हिस्से के ही दाने,
चिड़िया ले जाती है  बीन के.

 वो अक्सर भटके मिलते हैं,
दुनिया पीछे चलती जिनके.

 अब ना दरख्तों तले गाँव में,
गूंजा करते बोल ता-धिन के.

 दिल इक ऐसा गुल्लक जिसमे,
सिक्के जमा बीते पल-छिन के.

: राकेश जाज्वल्य. १४.१२.१०
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Friday, November 26, 2010

तेरी याद रजाई है....

मेरे लबों पर आई है,
तुझ सी एक रुबाई है।

जब से तेरा साथ हुआ है,
गुस्से में तन्हाई है।

मौसम सर्द अकेलेपन का,
तेरी याद रजाई है।

नर्म, मुलायम, भीनी-भीनी,
सांसें हैं, पुरवाई है।

करवट बदली है मौसम ने,
या तेरी अंगडाई है।

कुछ है दुनिया की मज़बूरी,
कुछ दिल भी हरजाई है।

रिश्ते ठन्डे हुए बर्फ से,
किसने आग लगाईं है।

धुली-धुली लगती है आँखें,
तू फिर रो कर आई है।

: राकेश जाज्वल्य २६.११.२०१०
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Sunday, November 21, 2010

तू लाख़ कहे है पागलपन ....

तू जो है तो मै हूँ, तेरी वजह से मेरा होना है।
तेरे लबों पे पाना है खुद को, तेरी बाँहों में खोना है।

मै हूँ इक बादल आवारा, तेरा प्यार समंदर गहरा है।
मै बरसूं कहीं, इक रोज मुझे, तेरी लहरों में खोना है।

दिखता है मुझे हर शख्स में तू, तेरी याद में वो गहराई है।
मेरी आँखों पर मेरा बस ही नहीं, ये कैसा जादू - टोना है।

तू लाख़ कहे है पागलपन, मंजूर मुझे झिड़की तेरी,
तेरी चाहत है गर राधा- सी, मेरा इश्क भी किशन सलोना है।

: राकेश जाज्वल्य .
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हवाओं में बारिश की बूंद................

हवाओं में बारिश की बूंद गुनगुनाती है,
भीगे पत्तों सी तुम्हारी याद आती है.

बरसात में कहीं से घूम कर लौटो,
गीली मिटटी भी घर के भीतर आती है.

मिल भी जाते हैं ज़िस्मों से जिस्में,
और दूरियां दिलों की रह भी जाती है.

जिसमे दामन पर कोई दाग ना लगे,
अक्सर वो मोहब्बत बेवज़ह कहलाती है.

बनाता है बार- बार वो रेत में घरोंदें,
हर बार  आँखों में उम्मीद झिलमिलाती है.

दोस्तों मेरे घर के उसे इशारे ना करो,
नदी क्या समंदर का पता पूछ कर जाती है.
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: राकेश जाज्वल्य

Saturday, November 13, 2010

मैं चाँद-सा अक्सर हुआ......

जब तुझसे तर-बतर हुआ.
मैं और भी बेहतर हुआ.

जब भी बहा मैं आँखों से ,
तेरी उँगलियों पर घर हुआ.

होना जुदा तुमसे कभी,
चाहा नहीं था, पर हुआ.

तू ज़ेहन में था ख्याल-सा,
मैं लफ्ज़ दर-बदर हुआ.

ये इश्क़ खां-मख्वाह ही,
कब जाने मेरे सर हुआ.

बढ़ा कभी, घटा कभी,
मैं चाँद-सा अक्सर हुआ.

सुना है तेरे पास जो,
था दिल कभी, पत्थर हुआ.

: राकेश जाज्वल्य. १२।११।१०
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Friday, November 12, 2010

यूँ गर्दिशों के दौर में .........

यूँ गर्दिशों के दौर में पलने का मज़ा लें.
धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी, जलने का मज़ा लें.

जो उसकी ये फ़ितरत है के हँसता है गिराकर,
तो तन के उठ खड़े हों आ चलने का मज़ा लें.

रखें ज़हन में चाँद-सा अहसास खुशनुमा,
बढ़ने का लें मज़ा कभी ढ़लने का मज़ा लें.

बोसे रखे थे उसने जिन पलकों पे प्यार के,
वो पलकें उसकी याद में मलने का मज़ा लें.

कभी बादलों के रूप हम उड़ें हवाओं में,
कभी बागों में उगें, बढ़ें, फलने का मज़ा लें.

: राकेश जाज्वल्य . १२ .११ .१०
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Tuesday, November 2, 2010

वो इक हवा सी....

वो इक हवा सी कल मेरी आहों से कह गई।
ज़ानिब मेरी बही मगर राहों में रह गई।

मानिंद इक अल्फाज़ रहा मैं ज़ुबां तलक, 
वो सदा सी दिल की निगाहों से बह गई।

बिखरी तो थी हवाओं पर लिखने मुहब्बतें,
ख़ुश्बू जो मुझसे लिपटी तो बाँहों में रह गई।

इक आरजू सी दिल में कभी यूँ उठी तो थी,
ना जाने क्या हुआ कि फिर आहों में रह गई।

मजबूरियों का पेड़ जब उस घर पे जा गिरा,
मजबूत  जो  दीवार  थी चाहों की  ढह गई।

वो अपनी ज़िन्दगी से चाहे हो  खफ़ा-खफ़ा,
ज़िन्दगी मगर खताएं सब गुनाहों के सह गई।
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: राकेश जाज्वल्य ०४।११।१०


घुलता है धीमे आँखों में.....................

घर पर बुजुर्गों का होना, सर पर साईं का होना है...
किसी ने क्या खूब कहा है-
मेरे आँगन में इक बूढ़ा-सा शज़र है,
पत्तियां एक नहीं, पर छांह घनी रहती है......
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घुलता है धीमे आँखों में याद का पत्थर।
बीते बरस धुआँ हुआ बुनियाद का पत्थर।

थी राह उँगलियों में जिसके क़दमों में मंज़िल,
उस ओर देखता है हर इक बाद का पत्थर।

होने से जिसके हौसला पाती थी जिंदगी,
जीना है उसके बिन यहाँ फ़रियाद का पत्थर।

छूने से जिसके ग़म सभी खुशियों में ढल गए,
तारों की भीड़ खो गया वो शाद का पत्थर।

वो शख्स था तो थी हजारों राह हर घडी,
जो वो नहीं तो इल्म ना इमदाद का पत्थर।
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: राकेश जाज्वल्य २६।१०।१०

Wednesday, October 20, 2010

वो जो पहलू से मेरे.........

वो जो पहलू से मेरे हो के गुज़र जाता है।
खूबसूरत ये जहाँ और निखर जाता है।

ख्वाबों-ख्वाबों ही उसकी आखों पे दी है दस्तक,
यूँ सुना है के दिलों तक ये असर जाता है।

मुझको अनजाने जो छू जाती है ऊँगली उसकी,
चाँद खिलता भी गर रहा तो ठहर जाता है।

बातों-बातों में अगर बे-वज़ह भी हंस दे वो,
सुनने वाला हुआ जो मुझसा तो मर जाता है।

सुन के तू मेरी मुहब्बत का ये हसीं नगमा,
कम से कम ये तो बता दे की किधर जाता है।

नहीं आसान छुपाना यूँ दिल का ग़म दिल में,
रुका जो लब पे तो गालों पे बिखर जाता है।

: राकेश जाज्वल्य २० .१० .२०१०
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Sunday, October 10, 2010

ना जाने किस ओर....

ना जाने किस ओर...मेरी जान चला हूँ मैं।
जब से बिछड़ा हूँ तुमसे बस जला हूँ मैं।

तुम भी आओ...मेरी ज़ानिब धूप बनकर कभी,
कब से पत्तों पर शबनम -सा ढला हूँ मैं।

सब के हाथों...में पत्थर मेरी फ़िराक में,
जिस्म ले कर शीशे का पर चला हूँ मैं।

मैं कभी तो निगाहों से रात बनकर बहा,
और दिन सा निगाहों में भी घुला हूँ मैं।

हर कहानी...में तुम्हारी दास्ताँ की तरह,
तुमको गज़लों में कहने की कला हूँ मैं।

बे-मुरव्वत...तंगदिल, मतलबी शहर में,
तेरी आँखों में सपनों सा पला हूँ मैं।

तुमसे शिकवा...तुमसे चाहत, तुमसे ही दिल्लगी,
तुम ही जानों के बुरा हूँ या भला हूँ मैं।

: राकेश जाज्वल्य. ०९ .१०.१०
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Tuesday, September 28, 2010

तेरे नैन बड़े बदमाश....

तेरे नैन बड़े बदमाश.......तेरे नैन बड़े..
तेरे नैन बड़े बदमाश.......तेरे नैन बड़े..

साँझ-सवेरे मुझको ताकें,
उड़े फुर्र फैलाएं पाँखें.
मेरी उनीदी अंखियों से,
चाँद ढले तक करके बातें,
मुझे लेने न दें साँस......तेरे नैन बड़े...[1]

नैनों में इक कश्ती कोई,
सपनों के तूफां में खोई.
मैंने जब जब कि कोशिशें,
लहरों में पतवारें बोई,
डूबे टखनों तक बांस.......तेरे नैन बड़े...[2]

कभी फ़लक पर इनके डेरे,
बन के बादल पर्वत घेरे.
कागज़-कागज़, धरती-धरती,
ओस गिराए लफ्ज़ बिखेरे.
बनें नर्म मुलायम घांस....तेरे नैन बड़े...[3]

तेरे नैन बड़े बदमाश.......तेरे नैन बड़े...
तेरे नैन बड़े बदमाश.......तेरे नैन बड़े...

: राकेश जाज्वल्य. 29.09.10.
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Saturday, September 25, 2010

..आज उसके घर की भी लेकिन बनावट देखिये.

अपने दरवाजे किसी क़दमों की आहट देखिये।
ज़िन्दगी में धूप की फिर गुनगुनाहट देखिये।

गलियाँ यूँ फैलीं शहर में, जैसे की दिल में नसें,
इन में बसकर आप दुनिया की बसाहट देखिये।

आपने तो यूँ हमेशा रूह के सज़दे किये,
आज उसके घर की भी लेकिन बनावट देखिये।

आग के दरिया में है ग़र डूबने की ख़्वाहिशें,
पहले अपने तिश्नगी की छटपटाहट देखिये।

उसकी आँखों से बिखरती काजलों की आड़ में,
मिट रही है उसके ख्वाबों की लिखावट, देखिये।

ऐसे कब वो मानते हैं, हाँ!... हूँ मैं भी इश्क में,
जिक्र पर जब हो तेरा तब मुस्कराहट देखिये।

फिर सुखन की चांदनी सी खिल उठी चारों तरफ,
फिर हुई ..... राकेश के आने की आ हट देखिये।
( yah panktiyan -makta- Vinit ji ne likhin hain. unka dil se shukriya.)

ऐसे कब वो मानते हैं कि उन्हें भी इश्क है,
ज़िक्र पर जब हो मेरा तब मुस्कराहट देखिये!
( यह शेर श्री मिसिर साहब द्वारा भाव रूपांतरित करते हुए पुनःप्रस्तुत । )

: राकेश जाज्वल्य २५.०९.१०
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Thursday, September 23, 2010

आँखों में सबकी चाँद का दरिया....

मैं किसी ना किसी बहाने से,
जीत कर आऊंगा ज़माने से।

ज़िन्दगी से तेरी ग़ज़ल बेहतर,

सुर लगते तो  हैं लगाने से।

अब दवा लेना मैंने छोड़ दिया,

दर्द घटने लगा है गाने से।

तेरे आने से कुछ निखरता हूँ,

कुछ बिखरता हूँ तेरे जाने से।

आँखों में सबकी चाँद का दरिया,

तारे बहते हैं दिल दुखाने से।

सर्द रातों में आग के जैसी,

प्यास भड़की है लब मिलाने से।

मुस्कुराने से बात बनती है,

बात बढ़ती है खिलखिलाने से।

इश्क़ तेरा ना ग़लतफ़हमी हो,

बच के रहना तू आज़माने से।

: राकेश जाज्वल्य २३.०९.१०

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Wednesday, September 22, 2010

..घर से निकलते देर हुई.

जिस दिन बातों में बेर हुई।
घर से निकलते देर हुई।

मेरी ग़ज़लें महज़ शब्द थे,
हँसी तुम्हारी शेर हुई।

कहना-सुनना भर-भर आँखें,
फिर ना कहना देर हुई।

यूँ तेजी से बदला मौसम,
कच्ची अमियाँ चेर हुई।

गिन-गिन उँगली उमर बिताई,
यूँ ही देर सबेर हुई।

थी छटांक सी दिल में मुहब्बत,
तुमसे मिल कर सेर हुई।

* राकेश जाज्वल्य २१।०९।१०।
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बेर = समय।
चेर= वक्त से पहले आम के छोटे फलों का कड़ा हो जाना।
छटांक/ सेर= पुराने दौर के माप/ वज़न।

Monday, September 20, 2010

बदतमीज़ रात!....

कल की रात ! ...
बड़ी बदतमीज़ .

रात भर
साथ रही ही रही,

पूरा दिन भी
जगाती ही रही.

तुम्हारे जाने के बाद,
याद तुम्हारी....

जाती भी रही....
..आती भी रही.

: राकेश जाज्वल्य. २०.०९.१०
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Tuesday, September 7, 2010

री..माई...कासे कहूँ मन-बतियाँ....(गीत)- 1

री ..माई....
कासे कहूँ मन-बतियाँ.
लिख-लिख राखी पतियाँ....री माई.. कासे कहूँ..
१.
खेल - खिलौने मुझसे रूठे,
वो बचपन के दिन भी छूटे,
ये कैसे दिन मुझ पर आये,
काहे अकेलापन मुझे भाये,
काहे ना भाये सखियाँ....री माई...कासे कहूँ..
२.
सूरज छेड़े आँगन- आँगन,
चमकाए मोरे अँखियाँ दरपन,
अब मोहे चंदा ना सुहाए,
छिप कर देखे, क्यों मुस्काए,
नींद ना आये रतियाँ....री...माई... कासे कहूँ..
३.
माई तू मेरी सखी- सहेली,
पर कैसी यह अबूझ पहेली,
यह  कैसा आकाश है भीतर,
उड़ना चाहूँ ले अपने पर।
सपन उगायें अँखियाँ....री..माई...कासे कहूँ..: राकेश जाज्वल्य ०७।०९।१०।
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Saturday, September 4, 2010

वो जब कभी भी याद आएगा......

वो जब भी याद आएगा।
है यकीन मुझको, रुलाएगा।

फिर निगाहों की नम ज़मीनों पर,
फूल नमकीन वो उगाएगा।

उसके आँगन में बरस कर बादल,
मेरे गालों पे लुढ़क जाएगा।

किसके चेहरे में कितने चेहरें हैं,
वक्त आने पे नज़र आएगा।

इश्क़ हर ज़ख्म कुछ हसीं होकर,
फिर दुआओं में बदल जायेगा।

वो बिछड़ कर भी मुस्कुराता है,
यूँ उमर भर मुझे सताएगा।

उसका आना तो याद आता था,
अब ये जाना भी याद आएगा।

सोने-सोने सा हर सपना उसका,
चाँदी- चाँदी मुझे जगायेगा।

आज थोड़ी सी ज़िन्दगी बेची,
कल का कुछ और देखा जायेगा।
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: राकेश जाज्वल्य ०५।०९।१०।

Sunday, August 22, 2010

...के नींद तुमको फिर नहीं आएगी उम्र भर.

यह लम्हें फिर ना रात दोहराएगी उम्र भर.
बस याद इन लम्हों की अब आएगी उम्र भर.

यह सोच कर तुम आज इन बांहों में सोना,
के नींद तुमको फिर नहीं आएगी उम्र भर.

कभी उसकी चिट्ठियों में थी घर आने की ख्वाहिश,
घर भर को अब ये बात सताएगी उम्र भर.

क्यूँ तुमने रख दिया मेरे पहलू में चाँद को,
अब रात क्या फ़लक पे सजाएगी उम्र भर।

कुछ इश्क की दुनिया में हों तेरे भी तजुर्बे,
या तू भी सुनी बात सुनाएगी उम्र भर.

: राकेश जाज्वल्य. 20.08.10
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Thursday, August 5, 2010

या कि तू या धूप, तितली.....

जब से तेरी निगाह में खोने लगा हूँ मैं।
क्या था और क्या अब होने लगा हूँ मैं।

तू बन के ख़्वाब शायद आ जाए इत्तेफाकन,
आँखें रख  कर  अधखुली सोने लगा हूँ मैं।

अच्छा  कि  अब ये  मौसम बारिश का आ गया,
मुश्किल हुआ ये कहना कि  रोने लगा हूँ मैं।

 है  कैसे भला  मुमकिन , मैं हो  जाऊं तुम,
नाहक ही नीम- सपने संजोने लगा हूँ मैं।

या कि तू या धूप, तितली, या हँसी या फूल,
कुछ दिल के कागजों में बोने लगा हूँ मैं।

* राकेश जाज्वल्य
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Sunday, August 1, 2010

* दोस्ती के दिन........*

कॉलेज के वो प्यारे साथी और मस्ती के दिन।
याद रखेंगें बरसों बरस हम दोस्ती के दिन।

सिगरेट के वो धुओं के छल्ले, प्यारे रतजगे,
उसके शहर की रात और मेरी बस्ती के दिन।

तोहफे में कभी घड़ियाँ, बाली, ऐसी दरियादिली,
कभी पार्टियाँ उधारी की, फाका-मस्ती के दिन।

स्कूल के बस्ते से लेकर कॉलेज बैग तलक,
अपने काँधों टंगे रहे ऊँची हस्ती के दिन।

कभी बीच समंदर तूफां के बाँहों में डाले बांह,
कभी डगमगाए साहिल पर अपनी कश्ती के दिन।

: rakesh jajvalya। ०१.०८ .२०१०
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Saturday, July 31, 2010

तू उठा कर आग सूरज से जला अंगीठियाँ..

अभी ले मज़ा तूफानों का, के साहिल दूर है।
कुछ हौसलों की बात कर, के मंजिल दूर है।

तू भी सिक्कों की खनक सी मीठी बात कर,
कड़वे सच से जीत की हर महफ़िल दूर है।

उस तरफ दीवार के है दुनियां प्यार की,
जरा पँख तू मजबूत कर, के कातिल दूर है।

तू उठा कर आग सूरज से जला अंगीठियाँ,
दिन हैं बारिश के मगर अभी बादल दूर है।

देख के ये दिन दुबारा आयेंगे अब फिर नहीं,
तू ना रुक कल के लिए, के हासिल दूर है।

: राकेश जाज्वल्य
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Wednesday, July 28, 2010

बदरी फिर घिर आई है.....(गीत)

बदरी फिर घिर आई है।
कैसी उदासी छाई है.............बदरी.......

फिर सावन नैनों से बरसा।
फिर दिल तेरी याद में तरसा।
याद तुम्हारी लाई है.............बदरी........[1]

रुत गीली, पलकें गीली हैं।
बूंदें भी जलती तीली हैं।
रिमझिम आग लगाई है.............बदरी.....[2]

इक-इक दिन आँखों में काटे।
दरवाज़ों से सुख -दुःख बांटें।
तेरे बिन तन्हाई है..............बदरी.....[3]

सोर- संदेसे भी तुम भूले।
नागन से डसते हैं झूले।
सुनी मेरी अमराई है.......बदरी.......[4]

मैं ना अब मैं रही पिया जी।
मेरा ना अब मेरा ही जिया जी।
ये तेरी परछाई है............बदरी.....[5]

अब जब तुम घर को आओगे।
वापस ना यूँ जा पाओगे।
ऐसी कुण्डी मंगाई है.........बदरी....[6]

बदरा फिर घिर आई है।
कैसी उदासी छाई है.............बदरी...

* राकेश जाज्वल्य
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Monday, July 12, 2010

चाँद की झूठी कसमे........(त्रिवेणी.)

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उनके रूठे-रूठे दिल को यूँ अक्सर बहलायें हम।
सच्चे इश्क की ख़ातिर चाँद की झूठी कसमें खाएं हम।

खुदा मुआफ़ करे ..... चाँद के चेहरे  के लिए।

* राकेश जाज्वल्य।
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मुहब्बत हो......

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बात मुश्किल, मगर हो जाए, ...मुहब्बत हो।
कुबूल दिल की दुआ हो जाए, ...मुहब्बत हो।

नफरतों का ये सफ़र क्यूँ हो उमर भर जारी,
तल्खियाँ दूर कहीं खो जाए, ....मुहब्बत हो।

ज़ख्म कितने भी लगे हों, मगर ख़ुदा मेरे,
बह के आँसू दवा हो जाए, ....मुहब्बत हो।

हर कदम पर कोई नेमत हो सबकी झोली में,
दुःख जो आये कहीं खो जाए,...मुहब्बत हो।

चाहे काँटे कहीं बरसे हों, किसी के लब से,
फूल बरसे जिधर वो जाए,...मुहब्बत हो।

बात मुश्किल, मगर हो जाए, ...मुहब्बत हो।
कुबूल दिल की दुआ हो जाए, ...मुहब्बत हो।

* राकेश जाज्वल्य ११।०७।२०१०।
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Thursday, July 8, 2010

काला जादू बस्तर का.........

इक सल्फी, इक काली मैना और इक दादू बस्तर का.
तेरी आँखों में है कोई काला जादू बस्तर का.

अक्सर यूँ चलने लगता हूँ इश्क के दुर्गम जंगल में,
जैसे कोई जंगली भैंसा हुआ बेकाबू बस्तर का.

इमली, आम, करील, चिरौंजी, तेंदू, नीम सी लगती तुम,
और तुम्हारे सुर्ख  लबों  पर  महुआ- काजू बस्तर का.

बिना तुम्हारे दिन यूँ गुजरा, जैसे महानगर के दिन,
शाम ढले  पर आया मौसम, मेरे बाजू बस्तर का.

: राकेश जाज्वल्य. ०७.०७.२०१०.
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१. सल्फी = बस्तर में पाए जाने वाले सल्फी के पौधे से हल्के नशे वाला तरल पेय- " सल्फी " प्राप्त होता है.
२. काली मैना = बस्तर में पाई जाने वाली काली मैना मनुष्यों की आवाज की हु-बहू नक़ल कर लेती है.
३. दादू = युवा बस्तरिया के लिए इक संबोधन (nick name.)
४. करील = बरसात में बांस की नई कोपलें, इसके नर्म मुलायम हिस्से को पकाकर खाया जाता है.
५. चिरौंजी = "चार" नामक फल का भीतरी कोमल भाग. इसे खीर में डाला जाता है. महंगा और पौष्टिक.
६. तेंदू = इक मीठा फल.
७. महुआ और काजू = दोनों ही फल से शराब बनाई जाती है.
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Thursday, July 1, 2010

आवाज से परे......

गूंजेगी एक धुन यहाँ अब साज़ से परे।
मुझको सुनोगे तुम अगर आवाज़ से परे।

हम आ बसेंगे दिल में तेरे, जैसे ख़ामोशी से,
बसता है ख़्वाब आँख में अहसास से परे।

तुमको नहीं यकीन अगर मेरी वफ़ाओं का,
बस छू कर देखना मुझे तुम साँस से परे।

होगा असर झलक का मेरे, दिल पर इस कदर,
सज़दा करोगे गलियों में, तुम लाज से परे।

ठंडी हवा के झोंके सा कुछ कह गया हूँ मैं,
सोचो तो बात पाओगे, अल्फाज़ से परे।

: राकेश जाज्वल्य ०१/०७/२०१०
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Monday, June 28, 2010

आँखों से अश्कों की मुलाकात का मौसम....

है आँखों से अश्कों की मुलाकात का मौसम।
जज्बात का मौसम है ये बरसात का मौसम।

काज़ल निकाल आँखों से बादल क्यूँ रंग दिया,
छाने लगा है दिन में भी अब रात का मौसम।

मैंने सुना है तुम भी हो शामिल बहार में,
आओ इधर कि बदले कुछ हालात का मौसम।

खेतों में लहलहा उठें अम्मी की दुआएं,
अब के ख़ुदा तू भेज करामात का मौसम।

बरसे घटायें यूँ कि हो बस प्यार हर तरफ,
हर बूंद में हो उसकी सौगात का मौसम।

अपनों की शिकायत ना करो गैर की गली,
जारी रहे हमेशा ख़त-ओ-बात का मौसम।
* राकेश जाज्वल्य।
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Friday, June 25, 2010

इक नशा सा तारी है..

इक नशा सा तारी है।
इश्क बुरी बीमारी है।

ख़ुदा कहाँ इंसानों जैसा,
उसकी भी लाचारी है।

जिस्मों को क्या गाली देना,
रूह जहाँ बाज़ारी है।

मर कर तो कुछ हल्का हो लूँ,
तुझ बिन हर पल भारी है।

प्यार में जी के देख लिया है,
अब मरने की बारी है।

चाँद को कल इक फूल दिया था,
तब से वो आभारी है।

जब से तुमने मुड़कर देखा,
दिल का धडकना जारी है।

इश्क तो होगा होते- होते,
पहली शर्त तो यारी है।

* राकेश जाज्वल्य २५।०६।१०।
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Thursday, June 24, 2010

इक पूरी ग़ज़ल चाँद पर......

जब भी छत पर आया चाँद।
देख हमें शरमाया चाँद।

पूछा मैंने कहाँ मिलना है,
उसने मुझे दिखाया चाँद।

देख तेरी चंदा सी सूरत,
उसने कहीं छिपाया चाँद।

सोने को तो दिन है पूरा!
कहकर रात जगाया चाँद।

एक तुम्हारे वादे पर ही,
मैंने मांग सजाया चाँद।

झील का पानी छलका-छलका,
किसने वहां डुबोया चाँद।

सुख-दुःख सा घटता बढता है,
अपना कभी पराया चाँद।

निकल चली फिर लाँघ देहरी,
सूरज ने भरमाया चाँद।

आँखें बरसती रहीं रात भर,
तेरे ग़म ने पिघलाया चाँद।

सुनो सजन! जल्दी घर आओ,
मेरी गोद में आया चाँद ।
* rakesh jajvalya.
............................... .......आगे की पंक्तियाँ अनिल "मासूम" जी की कलम से॥

बरसों बाद किसी ने आकर,
हम को खूब सुनाया चाँद।

लोग ये कहते ऊबड़-खाबड़,
तुम ने खूब सजाया चाँद।

मुझसे खफ़ा कल से बैठा था,
तुम ने रात मनाया चाँद।

चंपा ने रोटी की सूरत,
रात को घर पे खाया चाँद।

मैं कल जब छत पे ना आया,
मेरी छत पे आया चाँद।

चाँद चाँद तभी लगा जब,
इस कागज़ पर आया चाँद।

तुम कहते हो ग़ज़ल लिखी है,
हम ने तो बस पाया चाँद।
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Thursday, June 17, 2010

बेसबब सी बातों पर क्यूँ,................

बेसबब सी बातों पर क्यूँ, बेसबब हम लड़ पड़े थे.
थोड़ी दूरी पर ही जबकि, खुशियों के अवसर खड़े थे.

लाख रूठा ये ज़माना, खुद से पर रूठे ना हम,
थी अगर अड़ियल ये दुनिया, हम भी तो चिकने घड़े थे.

इक-इक दिन अब धीरे-धीरे, उम्र छोटी हो रही है,
जिस दिन हम पैदा हुए थे, उस दिन हम सबसे बड़े थे.

तुमने जो ख्वाबों के जेवर, पहने अपनी आँखों में,
उनमे उम्मीदों के कितने, चमकीले मोती जड़े थे.

चाँद बन के तुम कभी, जानां कभी जाना नहीं,
फूल बन कर चाहे तेरे जुड़े में हम जा पड़े थे.

उम्र भर रिसता है दिल से, टूटे रिश्तों का लहू,
यादों के टुकड़े नुकीले सीने में गहरे गड़े थे.

* राकेश जाज्वल्य
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Wednesday, June 16, 2010

यूँ तेरा नाम.........

यूँ तेरा नाम ज़माने से छिपाया हमने,
सी लिए होंठ, हर इक लफ्ज़ मिटाया हमने।

हैं तलबगार मगर तुझको ना चुरायेंगे,
ऐसे पाया भी तो सच कहिये क्या पाया हमने।

बदली बदली सी है बहती हवा ज़माने की,
इसमें देखा नहीं अपना कहीं साया हमने।

अब भी है प्यार मुहब्बत, बढ़के सांसों से,
कभी सोचा ही नहीं तुमको पराया हमने।

ये चाँद कब से है खिड़की पे आकर अटका,
अपना चेहरा ना कभी उससे हटाया हमने।

तुम भी आओ तो ये दुनिया ज़रा मुकम्मल हो,
यूँ इसे सब की हँसी से है सजाया हमने।

* राकेश जाज्वल्य.........१७।०६।२०१०।
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Monday, June 14, 2010

तुमने जिनको छू लिया.....

हम लकीरों से उलझकर जब कभी बेघर हुए।
चल के तपते पत्थरों पर, चांदनी के दर हुए।

उनकी आँखों से छलक आयीं दो बूंदें गाल पर,
ख़्वाब उनके भी लो अब, नमकिनियों से तर हुए।

यूँ तो साहिल पर पड़े थे, सदियों से पत्थर कई,
तुमने जिनको छू लिया वो टुकड़े संग-मरमर हुए।

बीते बरसों भी कहा था माँ ने की अब लौट आ,
ख़्वाब शहरों के मगर मेरी राह के विषधर हुए।

याद करते ही तुझे ग़ज़लें सी उभरीं आँख में,
कोरे कागज़ थे कभी, अब तितलियों के पर हुए।

आवाजाही बढ गयी लो चाँद की गलियों में फिर,
जो सितारों के ठीये थे, आशिकों के घर हुए।

* राकेश जाज्वल्य.
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हलचल..............

फिर आज कुछ हलचल सी है, इन आँखों की झील में,
फिर पैर डुबोये ख़्वाबों ने, पलकों पे बैठकर।

ये ख्वाब हैं या आंसुओं के छलकने का सबब कोई।

* राकेश जाज्वल्य
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Monday, June 7, 2010

पुकार.....

चलो उन पर्वतों के ऊपर...
सबसे ऊपर जहाँ सिर्फ आसमान है,
और या फिर खुदा है,
आसमानों के भी ऊपर.
अब पुकारों उन्हें,
उम्मीद है....
यहीं हो पायेगी उनसे बातें,
मांगों जो भी चाहते हो,
मांगों जिसे भी चाहते हो,
मांगों फूल, खुशियाँ, प्यार,
ताजी हवा, समय पर बारिश,
मांगों बच्चों की मुस्काने,
बच्चियों की सुरक्षा भी मांगों.
मांगों.......
सच कहने की हिम्मत.
ताकत मांगों.......
जांत-पांत, भेद- भाव दूर करने के लिये.
आने वाले बच्चों के लिये
सुनहरा कल मांगों,
थोड़ी दुआएं भी मांग लो..
आज के बुजुर्गों के लिए.
कुछ मत छोडो......
सब मांग लो...
और लौटो....खाली हाँथ.
कमबख्तों...
वो सारी चीजें
जो तुम खुद कर सकते हो यहाँ..
इसी जमीं पर.
उसके लिये तो...खुदा भी नहीं सुनेगा तुम्हारी.

* राकेश जाज्वल्य
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Friday, June 4, 2010

मोहलत .....


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नींद भी, ख्वाब भी, है रात भी उसी की ,
चाहेगा जब भी वो, ये आँखें मूंद लूँगा मै.

काँधों पे अपने बस मुझे इक नींद की मोहलत देना...
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: राकेश

Tuesday, June 1, 2010

चाँद की भी इमेज है मुझ-सी...

बहती आँखों से बयाँ होता है.
दर्द जब दिल की जुबाँ होता है.

जब भी जी चाहे, ख़ुदकुशी कर लो,
भीतर इक गहरा कुआँ होता है.

जब सुलगती है ग़ज़ल सी दिल में,
सर्द मौसम में धुआँ होता है.

अपने चेहरे पे बारहा मुझको,
तेरी आँखों का गुमाँ होता है.

रूह की साँस चलती रहती है,
जिस्म का क्या है, धुआँ होता है.

चाँद की भी इमेज है मुझ-सी,
सच भी कह दे तो, मुआँ होता है.

: राकेश जाज्वल्य
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Monday, May 31, 2010

जरा खुल के कहो.........

सहमे - सहमे ना करो बात, जरा खुल के कहो।
दिन क्यूँ लगने लगी है रात, जरा खुल के कहो।

अभी डोर इन रिश्तों के टूटे भी नहीं हैं,
अभी दामन इन हाथों से छूटे भी नहीं हैं,
अभी आंधी इन राहों में आई भी नहीं है,
अभी घोर बदलियाँ भी छाई ही नहीं है,
अभी काबू में हैं हालत, जरा खुल के कहो।
सहमे- सहमे ना करो बात, जरा खुल के कहो।

इससे पहले की किसी से कोई प्यार ना रहे,
इससे पहले की ख़ुशी का इन्तेजार ना रहे,
इससे पहले की दिल किसी का तलबगार ना रहे,
इससे पहले की आँगन में बहार ना रहे,
इससे पहले की बिगड़े बात, जरा खुल के कहो,
सहमे - सहमे ना करो बात, जरा खुल के कहो।

फिर से क्यूँ ना रिश्तों को हम नया-सा मोड़ दें,
फिर से क्यूँ ना हम ख्वाबों से नाता जोड़ लें,
फिर से क्यूँ ना कुछ बंधन हम हंस के तोड़ दें,
फिर से क्यूँ ना हम दुनिया दिल के बाहर छोड़ दे,
फिर से क्यूँ ना हो शुरुआत, जरा खुल के कहो,
सहमे - सहमे ना करो बात, जरा खुल के कहो।

: राकेश जाज्वल्य
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Saturday, May 29, 2010

किसकी निंदिया उधार है यारा.

है नशा या खुमार है यारा.
ओये तेरे की ! ये प्यार है यारा.

उसकी आँखों में जो ना धड़का तो,
दिल का होना बेकार है यारा.

सुबह तलक ये रात रोती रही,
किसकी निंदिया उधार है यारा.

वो तेरा नाम लेके मरता है,
जिसपे दुनिया निसार है यारा.

सड़कों जैसा ही दिल के भीतर भी,
कितना गर्दो-गुबार है यारा.

बरसीं बारिश की चंद ही बूंदें,
ग़म का बादल बीमार है यारा.

ख्वाब आते हैं, चिटिओं की तरह,
कहीं आँखों में दरार है यारा.

: राकेश जाज्वल्य
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Thursday, May 27, 2010

* इक बड़ी गोल-गोल टाइप की कविता*

यह कविता जरा हलके -फुल्के मूड में लिखी है :)
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चन्दा गोल, सूरज गोल,
पृथ्वी घुमे गोल- गोल,
धरती भी गोल है।

शुन्य गोल, चक्के गोल,
घडी के काँटे गोल-गोल,
विज्ञान गोल है।

फूल गोल, हैं तने गोल,
फलियों में दाने गोल-गोल,
प्रकृति गोल है।

सिक्के गोल, रोटी गोल,
पेट भी सबके गोल-गोल,
हर भूख गोल है।

आँखें गोल, रातें गोल,
बातें सबकी गोल- मोल,
दुनिया ही गोल है।

इस वर्तुल दुनिया में,
चाहे चलें कहीं से,
घूम के सबको गोल-गोल,
वहीँ आना है।

पास तुम्हारे, मैं भी फिर-फिर,
लौट आता हूँ जानां...क्यूंकि,
गोल तुम्हारे चेहरे पर ही,
मेरा भी दिमाग गोल है।
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: राकेश जाज्वल्य

Wednesday, May 26, 2010

उम्र पूरी घुल गयी है....

अब लट कोई माथे पर झूलती ही नहीं है।
ये गिरह तेरी यादों की खुलती ही नहीं है।

भूला हूँ मैं हर बात, तेरी याद भुलाने,
क्या चीज़ मुहब्बत है, भूलती ही नहीं है।

मैंने कभी सोना, कभी यह ज़िस्म रखा था,
रूह तुमने जो रखा है, वो तुलती ही नहीं है।

है दर्द की डली सी, इस जुबाँ पे ज़िन्दगी,
उम्र पूरी घुल गयी है, ये घुलती ही नहीं है।

ऊँगली दिखा के तुमने जो स्टेचू कह दिया,
हिलती नहीं ये ज़िन्दगी, डुलती भी नहीं है।

पलकों पे यूँ कभी किसी का नाम ना लिखना,
इक बार लिख गयीं तो धुलती ही नहीं है।
------------------------------------------
: राकेश जाज्वल्य


तेरी बातें पकी निम्बोली सी....

कभी गुस्सा कभी ठिठोली सी।
तेरी बातें पकी निम्बोली सी।

मेरा चेहरा हुआ तेरा चेहरा,

मेरी बोली भी तेरी बोली सी।

जाने क्या देखा तुमने आँखों में,

हुई रंगीन तुम तो होली सी।

चाँद भी खिलखिला के हंस बैठा,

तू भी शरमाई बन के भोली सी।

बजी पायल तुम्हारी दुल्हन सी,

हुई बाहें भी मेरी डोली सी।
---------------------- --------
: राकेश जाज्वल्य

Saturday, May 22, 2010

नमी......

***
गिराये हैं ख्वाब गीले... पीले पत्तों की आड़ में,
आज फिर   दरख्तों तले  मिटटी में नमी है।


सदियाँ  हुईं  ...सुना है.....यहाँ  सुखा नहीं पड़ा।
***
: राकेश जाज्वल्य.

Thursday, May 20, 2010

सुना है इश्क - मुहब्बत में भी लू लगती है....

मुझको अक्सर गर्म हवा सी तू लगती है।
सुना है इश्क़-मुहब्बत में भी लू लगती है।


चाँद, समंदर, बारिश, कलियाँ, तितली, धूप,
मुझको हर इक शय में तू ही तू लगती है।


पेड़ों को पानी देना जब से सब भूले,
तब से देखा तपी- तपी सी भू लगती है।


चाँद की आँच में सपनों के भूने दानों सी,
घर भर में फैली तेरी ख़ुश्बू लगती है।


जब भी दिख जाती है धानी चुनरी ओढ़े,
मुझको तू मेरी मम्मी की बहू लगती है।
--------------------------------------
: राकेश जाज्वल्य

Monday, May 17, 2010

इक त्रिवेणी..




वो भी क्या दिन थे, हर इक सांस गुलाबी रहती थी,
गए जो तुम, दिन वो गुलाबों वाले चले गए...........

तुम जो आओ, तो इन लबों पे फिर...ख़ुश्बू का मौसम आये.
.....
: राकेश जाज्वल्य.

Friday, May 14, 2010

फूलों वाला चाँद टंगा था......

मुझको मेरे दिल ने ठगा था।
वरना तो मैं रचा-पगा* था।

उसकी मूंदी पलकों में भी,
जैसे कोई ख़्वाब जगा था।

रात के जुड़े में इक पूरा,
फूलों वाला चाँद टंगा था।

इश्क में मरने से कुछ थोडा,
जीने का अहसास जगा था।

सुबह तलक लौटा लायेगा,
सूरज लेकर चाँद भगा था।

*रचा-पगा = पारंगत
-----------------------
: राकेश जाज्वल्य

Wednesday, May 5, 2010

घाव फिर रिसने लगा......


दर्द से टिसने लगा।
घाव फिर रिसने लगा।
इन दिनों ज़मीर भी,
ज़िस्म सा बिकने लगा।
इश्क़ छिपाया था दिल में,
आँखों में दिखने लगा।
उसने इक ऊँगली छुई, फिर
कांधों पर टिकने लगा।
दीन-ओ- दुनिया की जतन में,
आदमी पिसने लगा।
कुछ थी उसकी कोशिशें,
कुछ मैं ही मिटने लगा।
---------------------
: राकेश जाज्वल्य

मैं मुहब्बत बन गया हूँ, डर सा हूँ मैं.....

त्रिवेणी के लिए lines लिखी थी ......बदल कर ग़ज़ल हो गयीं .....
तुम्हारी मुहब्बत को यूँ तरसा हूँ मैं.
बनकर ओस निगाहों से बरसा हूँ मैं.

कुछ खिड़कियाँ हैं, दरवाजें हैं, दीवारें भी,
कब तुम्हारे बिना इक घर सा हूँ मैं.

मुझको क़त्ल करने लगी हैं चौपालें भी,
मैं मुहब्बत बन गया हूँ, डर सा हूँ मैं.

तुम जो चाहो तो भी ना रुक पाउँगा,
हो गया हूँ पैदा अब तो ज़र सा हूँ मैं.

कोई वादा था तेरा फिर आऊंगा,
तब से राहों पर थमा हूँ, अरसा हूँ मैं.
------------------------------------
राकेश जाज्वल्य.

बालों चाँदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ......

रातों को माजी संग बैठा, अक्सर तारे तोड़ता हूँ।
बालों चाँदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ।

जिनके पहले पन्नो पर, कभी फूल बनाया था तुमने,
उन ख़्वाब-क़िताब निगाहों में, उम्र के पन्ने मोड़ता हूँ।

बस तेरे ही ख्वाब बुने, पलकों के ताने-बाने में,
उन यादों के रेशे ले, अशआर ग़ज़ल में जोड़ता हूँ।

दौर कोई हो, अपनेपन का दौर हमेशा रहता है,
नाहक बदले दस्तूरों पर, ठंडी साँसे छोड़ता हूँ।

जब भी धरा की ख़ुश्बू ले, वो मेरे आँगन आती है,
सूखे - पीले पत्ते गिराकर, मैं हरियाली ओढ़ता हूँ।

रातों को माजी संग बैठा, अक्सर तारे तोड़ता हूँ।
बालों चांदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ।
---------------------------------------------
: राकेश जाज्वल्य

Monday, April 19, 2010

दो त्रिवेणियाँ.....


दो त्रिवेणियाँ - तीन पंक्तियों की छोटी सी रचना- प्रस्तुत है,
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बरसात .....
यूँ तुम्हारी मुहब्बत को तरसा हूँ अभी.
बनकर ओस निगाहों से बरसा हूँ अभी.

चेहरा तुम्हारा भी कुछ भीगा-भीगा लगता है.

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2. घाल -मेल......

खुद को दी आवाज़, कभी जब मैंने तुम्हे पुकारा,
तेरा चेहरा आया नज़र, जब मैंने खुद को निहारा.

मुहब्बत का खेल है....बड़ा निराला घाल-मेल है....

--------------------------------------------------
: राकेश जाज्वल्य.

Thursday, April 15, 2010

बाबू जी.…


उनकी यादों की भी कुछ रंगत अलग है.
ऐसा लगता है के धरती पर फ़लक है.

उनके साए में खिले है ख़्वाब कितने,
लोग कहतें है बड़ी सोंधी महक है.

उन निगाहों से उगा करता था कल जो,
आज उस सूरज में भी गीली दहक है.

मैं भी अब लड़ने लगा दुनिया की ख़ातिर,
धडकनों में उनके पैरों की धमक है.

उनके हर इक याद से फैले उज़ाला,
उनकी हर इक बात जुगनू की चमक है.

एक आँगन, थोड़े पौधे, हँसते चेहरे,
बाबू की यादों में बापू की झलक है.
**********************
: राकेश जाज्वल्य.

Tuesday, April 6, 2010

दीमक अपनी यादों की..... .


निगाहें आज मैं अपनों से मोड़ आया हूँ.
ये किस उम्मीद में घर अपना छोड़ आया हूँ.

लगाया था कभी माँ ने जो पौधा तुलसी का,
मै उस यकीं की सभी पत्तियाँ तोड़ आया हूँ.

वो मेरा घर के हो जैसे किताब गज़लों की,
उसमें दीमक अपनी यादों की छोड़ आया हूँ.

हर इक रात जमा करते थे जिसमे सपने,
मैं वो गुल्लक भी पिता की फोड़ आया हूँ.

हंस के खाई थी कसम जिसके चबूतरे हमने,
उसी पीपल की मैं इक डाली मरोड़ आया हूँ.
---------------------------------------------
: राकेश जाज्वल्य.

Saturday, March 20, 2010

Tera chehra ../ तेरा चेहरा ....

Tera chehra ../ तेरा चेहरा ....
==================
Sachhi- jhuthi, meethi-tikhi
sab tasviren sah jaata hai.
Tera chehra palken sahlaye to
aankh me sapna rah jaata hai.
---------------------------------------
सच्ची - झूठी, मीठी - तीखी
sab तस्वीरें सह जाता है.
तेरा चेहरा पलकें सहलाए तो
आँख में सपना रह जाता है.
================
: Rakesh Jajvalya.

Monday, March 15, 2010

सपनों पर दाँव है.../ Sapnon par daon है..

शहरों में पाँव है।
दिलों में गाँव है।

धूप में जहाँ की,
तेरी यादें छाँव है।

आँखें पत्ते फेंट रहीं,

सपनों पर दाँव है।

बारिश जरा रुकना!
कागज़ की नाँव है।

माँ की गोद, पहली

aur आखिरी ठाँव है।
=============
Shaharon me paon hai.
Dilon me gaon hai.
dhoop me jahan ki,

teri yaaden chhaon hai.
Aankhen patte fent rahi,

Sapno par daon hai.
Barish jara rukna,

Kagaz ki naaon hai.
Maa ki god pahli

Aur aakhiri thaon hai.
================
: राकेश जाज्वल्य.

Friday, March 12, 2010

तमाम....

पाने की तुझको हो गयी आजमाइशें तमाम।
जैसे के हो गयी हों सभी ख्वाहिशें तमाम।

अटकी हुई हलक पे थी, आकर के जाँ मेरी,
लबों के खोलने से हुई मुश्किलें तमाम।

कहता फिरे काफ़िर मुझे, वाइज़ की है मर्ज़ी,
पैमानों सी धोयीं हैं यूँ, समझाइशें तमाम।

जब भी कोई हँसा, हुआ माहौल ख़ुशनुमा,
याद आई तेरी मुझको दिखी मंज़िलें तमाम।

कहीं रात थी धुआँ-धुआँ, कहीं ज़िस्म भी धुआँ,
धुआँ-धुआँ हुई थी कहीं, बंदिशें तमाम।
-------------------------------------------
: राकेश जाज्वल्य
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Wednesday, February 24, 2010

जब फूल खिलते......नन्ही राशि की नई रचना.


नन्ही राशि की नई रचना प्रस्तुत है, राशि ने कई दिनों पहले इसे लिखा था, आज उसने याद दिलाया की अभी तक मैंने इसे पोस्ट नहीं किया है। तो लीजिये आज मौका मिल ही गया.
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जब फूल खिलते...

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जब फूल खिलते
हमको अच्छे लगते।
तितलियाँ आतीं
फूल पर बैठती,
छोटी- छोटी कलियाँ
सुंदर फूल बनतीं।
जब चिड़ियाँ आतीं,
हम उसे
चाँवल के दाने देते।
जब छोटे फूल खिलते,
हम उन्हें तोड़ते नहीं।
जब फूल खिलते
हम को अच्छे लगते.
-------------------
: निर्झरा राशि.



Wednesday, February 17, 2010

शायद.........nai gazal.

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तेरे ख्यालों में आया जो, मैं नहीं शायद।
रहा भटकता मगर मैं भी वहीँ-कहीं शायद.

रहा है शौक, तेरी ही गली का बचपन से,
अपने कदमो से मगर मैंने कहा नहीं शायद.

किसी का ख्वाब था या फिर कोई सितारा था,
ऐसा टूटा कि फिर मिला वो कहीं नहीं शायद.

यही मंजूरे -खुदा था तो क्यूँ मिले थे हम,
सारी मर्ज़ी मेरे खुदा की, सही नहीं शायद।

कई सदियों से जो पत्ता रुका था डाली पर,
तेरे हाथों मिलेगी उसको अब जमीं शायद।
---------------------------------------
: राकेश जाज्वल्य.



Wednesday, February 10, 2010

इस पतझड़ मे / is patjhad me

राहों में उड़ते
पीले-भूरे पत्ते,
तेज हवाएँ,
धुल भरी आंधियां,
चुभती धूप,
दिनों-दिन
बढती गर्मी,
सुने रास्ते,
लम्बे दिन,
उमस दोपहरी,
अनबुझी प्यास,
ठंडी छाँव,
मीठा पानी,
अलसाया अलसाया मन....
सावन और शिशिर की तरह
अब इस पतझड़ में भी,
तेरी याद ने,
कितने रूप धरे है ...जानाँ.
==============
rahon me udte
pile-bhure patte,
tej hawayen,
dhul bhari aandhiyan,
chubhti dhoop,
dino.n-din
badhti garmi,
sune raste,
lambe din,
umas dopahri,
anbujh pyaas,
thandhi chhao.n,
meetha pani,
alsaaya alsaaya man...
sawan aur shishir ki tarah
ab is patjhad me bhi,
teri yaad ne,
kitne rup dhare hai.n...jaana.n.
---------------------------------------
: राकेश जाज्वल्य.

Tuesday, January 26, 2010

दीवारों के फूल....

आज सुबह-सुबह देखा
घर की दीवारों पर
खिल आये है फूल,
कहीं लाल, कहीं पीले,
कहीं नीले- नीले,
ओह .... याद आया...
तुम्हें लिखे ख़त पर
कल छलक गयी थीं
पानी की कुछ बूंदें,
उभर आये थे शब्द,
हलके गीले होकर ,
सहज ही लहरा कर
सुखा दिया था ख़त मैंने
हवा में,
और छिटंक गयी थी
घर की दीवारों पर
स्याही तेरे ख़त की।
============
: राकेश

Wednesday, January 20, 2010

ठंड के दिनों की बारिश में...

कुछ यूँ नज़र आती हैं
बारिश के
पानी की बूंदें,
ठंड के दिनों में,
कि जैसे....
सर्द सफ़ेद घने कोहरों की
चादर बुनने की
मेहनत में,
उभर आया हो
पसीना,
मौसम के
मासूम चेहरे पर.

हलकी सी बारिश
ठंड में,
मौसम की
हलकी ठिठुरन
कुछ और बढा देती है.

सहज ही...
हो जाता है मन,
तेरी बांहों के
कम्बल में आने को.

बदल जाता है
अक्सर,
मेरे दिल और ..
कमरे का
मौसम भी,
कुछ इसी तरह.

ठंड के दिनों में,
सुबह-सुबह
तुम अपनी
गीली जुल्फें,
जोर से
झटका ना करो,
जानां !.
---------
:
राकेश जाज्वल्य.

Saturday, January 9, 2010

आओ हम तुम भी चलें, बन के नयी राह कोई...

आओ हम तुम भी चलें, बन के नयी राह कोई।
क्यूँ ना रक्खें, इस ज़माने से जुदा चाह कोई।


हाँ ये सच है के, होता है हर एक शय का नसीब,
किसने रोका है मगर, थाम लो तुम बांह कोई।


वो जो अपना है, मुकर जाता है इक पल में कभी,
कुछ ना होगा, जो तुम भरते ही रहो आह कोई।


रुको ना तुम, नहीं रुकता कोई किसी के लिए,
उड़ो के अब हमें मंजिल की ना परवाह कोई।


तेरी जमीं में सितारों की तरह ख्वाब उगें,
तेरा वजूद मुकम्मल हो बने छांह कोई ।


यूँ ना संभाले रखो, दिन ये उदासी वाले,
रुत बदलती है के बैठा है कही शाह कोई।


तेरी नज़र का हर एक गीत इतर सा महके,
तुझे दुनिया की निगाहों से मिले वाह कोई।

--------------------------------------------
: राकेश.

Wednesday, January 6, 2010

लाख पहेली बुझी लेकिन.....

प्यार-मुहब्बत, रिश्ते-नाते,
सपनों-साँसों से जूझ रहा.
लाख पहेली बुझी लेकिन,
मन फिर भी अबूझ रहा.

उम्मीदों के गहरे सागर,
आकांक्षा के नव जलसा-घर,
सोचा करता है यह प्रतिपल,
कुछ घट जाता बाहर-भीतर.

लक्ष्य हजारों, रस्ते लाखों,
राह नयी पर पूछ रहा.
लाख पहेली बुझी लेकिन,
मन फिर भी अबूझ रहा. I1I

चाँद सितारों पर बसता है,
फाका मस्ती में हँसता है,
जब भी इससे बचना चाहें,
हंसकर बाँहों में कसता है.

कभी यह बाबा आदम जैसा,
कभी नया कुछ सूझ रहा.
लाख पहेली बुझी लेकिन,
मन फिर भी अबूझ रहा. I2I
---------------------
: राकेश जाज्वल्य.

Saturday, January 2, 2010

हुआ कल शाम हादसा कोई.......

हुआ कल शाम हादसा कोई।
मेरी निगाह आ बसा कोई.
तुमने ताने तार जिस्म के,

दिल पतंग सा उलझा कोई.
ढूंढा मैंने खुद में खुद को,

मिला नहीं पर मुझ-सा कोई.
तुझको पाने में खोने का,

रहता है इक डर-सा कोई.
रात जो काटी जागी-जागी,

ख्वाब आँखों से बरसा कोई।
कहीं, किसी को ताजमहल है,
कहीं, नहीं इक घर सा कोई।
====================
Huaa kal sham haadsaa koi.
meri nigah aa basa koi.
tumne taane taar zism ke,

dil patang sa uljha koi.
dundha maine khud me khud ko,

mila nahi par mujh-sa koi.
tujhko paane me khone ka,

rahta hai ik dar-sa koi.
rat jo kati jagi-jagi,

khwab aankhon se barsa koi.
kahin, kisi ko taajmahal hai,

kahin, nahin ik ghar sa koi.
----------------------------
: राकेश जाज्वल्य.