मेरे लबों पर आई है,
तुझ सी एक रुबाई है।
जब से तेरा साथ हुआ है,
गुस्से में तन्हाई है।
मौसम सर्द अकेलेपन का,
तेरी याद रजाई है।
नर्म, मुलायम, भीनी-भीनी,
सांसें हैं, पुरवाई है।
करवट बदली है मौसम ने,
या तेरी अंगडाई है।
कुछ है दुनिया की मज़बूरी,
कुछ दिल भी हरजाई है।
रिश्ते ठन्डे हुए बर्फ से,
किसने आग लगाईं है।
धुली-धुली लगती है आँखें,
तू फिर रो कर आई है।
: राकेश जाज्वल्य २६.११.२०१०
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यहाँ हैं.. मेरी ग़ज़लें और कवितायेँ...... कितनी भी कोशिश करें, चाहें..पी लें..... सूखती नहीं मगर..खारे पानी की झीलें.
Friday, November 26, 2010
Sunday, November 21, 2010
तू लाख़ कहे है पागलपन ....
तू जो है तो मै हूँ, तेरी वजह से मेरा होना है।
तेरे लबों पे पाना है खुद को, तेरी बाँहों में खोना है।
मै हूँ इक बादल आवारा, तेरा प्यार समंदर गहरा है।
मै बरसूं कहीं, इक रोज मुझे, तेरी लहरों में खोना है।
दिखता है मुझे हर शख्स में तू, तेरी याद में वो गहराई है।
मेरी आँखों पर मेरा बस ही नहीं, ये कैसा जादू - टोना है।
तू लाख़ कहे है पागलपन, मंजूर मुझे झिड़की तेरी,
तेरी चाहत है गर राधा- सी, मेरा इश्क भी किशन सलोना है।
: राकेश जाज्वल्य .
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तेरे लबों पे पाना है खुद को, तेरी बाँहों में खोना है।
मै हूँ इक बादल आवारा, तेरा प्यार समंदर गहरा है।
मै बरसूं कहीं, इक रोज मुझे, तेरी लहरों में खोना है।
दिखता है मुझे हर शख्स में तू, तेरी याद में वो गहराई है।
मेरी आँखों पर मेरा बस ही नहीं, ये कैसा जादू - टोना है।
तू लाख़ कहे है पागलपन, मंजूर मुझे झिड़की तेरी,
तेरी चाहत है गर राधा- सी, मेरा इश्क भी किशन सलोना है।
: राकेश जाज्वल्य .
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हवाओं में बारिश की बूंद................
हवाओं में बारिश की बूंद गुनगुनाती है,
भीगे पत्तों सी तुम्हारी याद आती है.
बरसात में कहीं से घूम कर लौटो,
गीली मिटटी भी घर के भीतर आती है.
मिल भी जाते हैं ज़िस्मों से जिस्में,
और दूरियां दिलों की रह भी जाती है.
जिसमे दामन पर कोई दाग ना लगे,
अक्सर वो मोहब्बत बेवज़ह कहलाती है.
बनाता है बार- बार वो रेत में घरोंदें,
हर बार आँखों में उम्मीद झिलमिलाती है.
दोस्तों मेरे घर के उसे इशारे ना करो,
नदी क्या समंदर का पता पूछ कर जाती है.
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: राकेश जाज्वल्य
भीगे पत्तों सी तुम्हारी याद आती है.
बरसात में कहीं से घूम कर लौटो,
गीली मिटटी भी घर के भीतर आती है.
मिल भी जाते हैं ज़िस्मों से जिस्में,
और दूरियां दिलों की रह भी जाती है.
जिसमे दामन पर कोई दाग ना लगे,
अक्सर वो मोहब्बत बेवज़ह कहलाती है.
बनाता है बार- बार वो रेत में घरोंदें,
हर बार आँखों में उम्मीद झिलमिलाती है.
दोस्तों मेरे घर के उसे इशारे ना करो,
नदी क्या समंदर का पता पूछ कर जाती है.
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: राकेश जाज्वल्य
Saturday, November 13, 2010
मैं चाँद-सा अक्सर हुआ......
जब तुझसे तर-बतर हुआ.
मैं और भी बेहतर हुआ.
जब भी बहा मैं आँखों से ,
तेरी उँगलियों पर घर हुआ.
होना जुदा तुमसे कभी,
चाहा नहीं था, पर हुआ.
तू ज़ेहन में था ख्याल-सा,
मैं लफ्ज़ दर-बदर हुआ.
ये इश्क़ खां-मख्वाह ही,
कब जाने मेरे सर हुआ.
बढ़ा कभी, घटा कभी,
मैं चाँद-सा अक्सर हुआ.
सुना है तेरे पास जो,
था दिल कभी, पत्थर हुआ.
: राकेश जाज्वल्य. १२।११।१०
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मैं और भी बेहतर हुआ.
जब भी बहा मैं आँखों से ,
तेरी उँगलियों पर घर हुआ.
होना जुदा तुमसे कभी,
चाहा नहीं था, पर हुआ.
तू ज़ेहन में था ख्याल-सा,
मैं लफ्ज़ दर-बदर हुआ.
ये इश्क़ खां-मख्वाह ही,
कब जाने मेरे सर हुआ.
बढ़ा कभी, घटा कभी,
मैं चाँद-सा अक्सर हुआ.
सुना है तेरे पास जो,
था दिल कभी, पत्थर हुआ.
: राकेश जाज्वल्य. १२।११।१०
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Friday, November 12, 2010
यूँ गर्दिशों के दौर में .........
यूँ गर्दिशों के दौर में पलने का मज़ा लें.
धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी, जलने का मज़ा लें.
जो उसकी ये फ़ितरत है के हँसता है गिराकर,
तो तन के उठ खड़े हों आ चलने का मज़ा लें.
रखें ज़हन में चाँद-सा अहसास खुशनुमा,
बढ़ने का लें मज़ा कभी ढ़लने का मज़ा लें.
बोसे रखे थे उसने जिन पलकों पे प्यार के,
वो पलकें उसकी याद में मलने का मज़ा लें.
कभी बादलों के रूप हम उड़ें हवाओं में,
कभी बागों में उगें, बढ़ें, फलने का मज़ा लें.
: राकेश जाज्वल्य . १२ .११ .१०
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धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी, जलने का मज़ा लें.
जो उसकी ये फ़ितरत है के हँसता है गिराकर,
तो तन के उठ खड़े हों आ चलने का मज़ा लें.
रखें ज़हन में चाँद-सा अहसास खुशनुमा,
बढ़ने का लें मज़ा कभी ढ़लने का मज़ा लें.
बोसे रखे थे उसने जिन पलकों पे प्यार के,
वो पलकें उसकी याद में मलने का मज़ा लें.
कभी बादलों के रूप हम उड़ें हवाओं में,
कभी बागों में उगें, बढ़ें, फलने का मज़ा लें.
: राकेश जाज्वल्य . १२ .११ .१०
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Tuesday, November 2, 2010
वो इक हवा सी....
वो इक हवा सी कल मेरी आहों से कह गई।
ज़ानिब मेरी बही मगर राहों में रह गई।
मानिंद इक अल्फाज़ रहा मैं ज़ुबां तलक,
वो सदा सी दिल की निगाहों से बह गई।
बिखरी तो थी हवाओं पर लिखने मुहब्बतें,
ख़ुश्बू जो मुझसे लिपटी तो बाँहों में रह गई।
इक आरजू सी दिल में कभी यूँ उठी तो थी,
ना जाने क्या हुआ कि फिर आहों में रह गई।
मजबूरियों का पेड़ जब उस घर पे जा गिरा,
मजबूत जो दीवार थी चाहों की ढह गई।
वो अपनी ज़िन्दगी से चाहे हो खफ़ा-खफ़ा,
ज़िन्दगी मगर खताएं सब गुनाहों के सह गई। ************************************
: राकेश जाज्वल्य ०४।११।१०
ज़ानिब मेरी बही मगर राहों में रह गई।
मानिंद इक अल्फाज़ रहा मैं ज़ुबां तलक,
वो सदा सी दिल की निगाहों से बह गई।
बिखरी तो थी हवाओं पर लिखने मुहब्बतें,
ख़ुश्बू जो मुझसे लिपटी तो बाँहों में रह गई।
इक आरजू सी दिल में कभी यूँ उठी तो थी,
ना जाने क्या हुआ कि फिर आहों में रह गई।
मजबूरियों का पेड़ जब उस घर पे जा गिरा,
मजबूत जो दीवार थी चाहों की ढह गई।
वो अपनी ज़िन्दगी से चाहे हो खफ़ा-खफ़ा,
ज़िन्दगी मगर खताएं सब गुनाहों के सह गई। ************************************
: राकेश जाज्वल्य ०४।११।१०
घुलता है धीमे आँखों में.....................
घर पर बुजुर्गों का होना, सर पर साईं का होना है...
किसी ने क्या खूब कहा है-
मेरे आँगन में इक बूढ़ा-सा शज़र है,
पत्तियां एक नहीं, पर छांह घनी रहती है......
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घुलता है धीमे आँखों में याद का पत्थर।
बीते बरस धुआँ हुआ बुनियाद का पत्थर।
थी राह उँगलियों में जिसके क़दमों में मंज़िल,
उस ओर देखता है हर इक बाद का पत्थर।
होने से जिसके हौसला पाती थी जिंदगी,
जीना है उसके बिन यहाँ फ़रियाद का पत्थर।
छूने से जिसके ग़म सभी खुशियों में ढल गए,
तारों की भीड़ खो गया वो शाद का पत्थर।
वो शख्स था तो थी हजारों राह हर घडी,
जो वो नहीं तो इल्म ना इमदाद का पत्थर।
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: राकेश जाज्वल्य २६।१०।१०
किसी ने क्या खूब कहा है-
मेरे आँगन में इक बूढ़ा-सा शज़र है,
पत्तियां एक नहीं, पर छांह घनी रहती है......
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घुलता है धीमे आँखों में याद का पत्थर।
बीते बरस धुआँ हुआ बुनियाद का पत्थर।
थी राह उँगलियों में जिसके क़दमों में मंज़िल,
उस ओर देखता है हर इक बाद का पत्थर।
होने से जिसके हौसला पाती थी जिंदगी,
जीना है उसके बिन यहाँ फ़रियाद का पत्थर।
छूने से जिसके ग़म सभी खुशियों में ढल गए,
तारों की भीड़ खो गया वो शाद का पत्थर।
वो शख्स था तो थी हजारों राह हर घडी,
जो वो नहीं तो इल्म ना इमदाद का पत्थर।
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: राकेश जाज्वल्य २६।१०।१०
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