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तेरे ख्यालों में आया जो, मैं नहीं शायद।
रहा भटकता मगर मैं भी वहीँ-कहीं शायद.
रहा है शौक, तेरी ही गली का बचपन से,
अपने कदमो से मगर मैंने कहा नहीं शायद.
किसी का ख्वाब था या फिर कोई सितारा था,
ऐसा टूटा कि फिर मिला वो कहीं नहीं शायद.
यही मंजूरे -खुदा था तो क्यूँ मिले थे हम,
सारी मर्ज़ी मेरे खुदा की, सही नहीं शायद।
कई सदियों से जो पत्ता रुका था डाली पर,
तेरे हाथों मिलेगी उसको अब जमीं शायद।
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: राकेश जाज्वल्य.
2 comments:
राकेश भाई आपकी "शायद नई गजल" पसंद आयी
आपका स्वागत है सुबीर संवाद सेवा पर जो मेरे गुरु जी का ब्लॉग है और वहा पर गजल के क्लास चलाती है तरही मुशायरा भी होता है
आइये और तरही मुशायरे में भाग लीजिए
बढिया ग़ज़ल भाई. धन्यवाद.
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