
निगाहें आज मैं अपनों से मोड़ आया हूँ.
ये किस उम्मीद में घर अपना छोड़ आया हूँ.
लगाया था कभी माँ ने जो पौधा तुलसी का,
मै उस यकीं की सभी पत्तियाँ तोड़ आया हूँ.
वो मेरा घर के हो जैसे किताब गज़लों की,
उसमें दीमक अपनी यादों की छोड़ आया हूँ.
हर इक रात जमा करते थे जिसमे सपने,
मैं वो गुल्लक भी पिता की फोड़ आया हूँ.
हंस के खाई थी कसम जिसके चबूतरे हमने,
उसी पीपल की मैं इक डाली मरोड़ आया हूँ.
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: राकेश जाज्वल्य.
4 comments:
हंस के खाई थी कसम जिसके चबूतरे हमने,
उसी पीपल की मैं इक डाली मरोड़ आया हूँ.
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....
किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।
wahh kya khub aapne jindagi ki kapkapati hui nas pakdi hai ,
sach kahe to ise padh ke kuch pal ke liye hum to istabdh ho gye ..DIL KI BAAT KAHU TO ISKI TARIF KARE KO HUMARE PAS AB TO ALFAZ HI NAHI BACHE ,,,,, BUS EK ASK KI BUND HI BACHI THI VO BHI SUKH GAI ISE PADH KE ......... WAH ,,,,WAH
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