जब से तेरी निगाह में खोने लगा हूँ मैं।
क्या था और क्या अब होने लगा हूँ मैं।
तू बन के ख़्वाब शायद आ जाए इत्तेफाकन,
आँखें रख कर अधखुली सोने लगा हूँ मैं।
अच्छा कि अब ये मौसम बारिश का आ गया,
मुश्किल हुआ ये कहना कि रोने लगा हूँ मैं।
है कैसे भला मुमकिन , मैं हो जाऊं तुम,
नाहक ही नीम- सपने संजोने लगा हूँ मैं।
या कि तू या धूप, तितली, या हँसी या फूल,
कुछ दिल के कागजों में बोने लगा हूँ मैं।
* राकेश जाज्वल्य
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क्या था और क्या अब होने लगा हूँ मैं।
तू बन के ख़्वाब शायद आ जाए इत्तेफाकन,
आँखें रख कर अधखुली सोने लगा हूँ मैं।
अच्छा कि अब ये मौसम बारिश का आ गया,
मुश्किल हुआ ये कहना कि रोने लगा हूँ मैं।
है कैसे भला मुमकिन , मैं हो जाऊं तुम,
नाहक ही नीम- सपने संजोने लगा हूँ मैं।
या कि तू या धूप, तितली, या हँसी या फूल,
कुछ दिल के कागजों में बोने लगा हूँ मैं।
* राकेश जाज्वल्य
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3 comments:
ativ sundar .....likhte rahiye......
मुझको अक्सर गर्म हवा सी तू लगती है....
सुना है इश्क़- मुहब्बत में भी लू लगती है..
के बदले अगर कहें-
मुझको अक्सर गर्म हवा सी तू लगती है....
सुना है इश्क़- मुहब्बत 'की' भी लू लगती है..
तो कैसा रहेगा.
बहरहाल तू के पर्याय और उनको परिभाषित करती पठनीय रचना.
तू या के धूप, तितली, या हँसी या फूल कोई,
कुछ दिल के कागजों में बोने लगा हूँ मैं।
... behatareen !!!
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