यह सुबहो-शाम की नाज़ुक मिज़ाजी के दौर से बाहर आने का वक्त है.
गर्म हवाओं ने पेशानी पर लिखी तक़दीर के सफ्हे झुलसा दिए हैं,
मेरी जाँ! .. यह भरी दोपहरी अब आदमी से आदम में बदल जाने का वक्त है.
हुकुम है आकाओं का..बंदूकों और सिक्कों से नयी दुनिया बनाई जाये.
हुकुम रहनुमाओं का भी है...वोटों और नोटों से हर राह सजाई जाये.
जंगलो में मिटटी के नीचे रोटियां दबायीं है किसी ने,
यहाँ के पेड़ों पर ख्वाबों के चीथड़े लटकते है.
कि...नशा अब यहाँ सल्फी में नहीं...लहू में है.
यहाँ की हवाओं ने भी अब अपने रंग बदल लिए हैं.....
मेरी जान!.. यह सुनहरी शाम नहीं...के सूरज डूब रहा हो क्षितिज पर,
यह सांसों के रुकने से हरीतिमा के चेहरे पर उभर आई लालिमा है.
बावजूद ... .. अजगरो के जबड़ों में फंसे हम... अक्सर हिरणों की हँसी हँसते हैं,
कल रात हम... अपने ही आँगन में...... महुआ की उदास गंधों के साथ,
...कटे, पके..... और .... खा लिए गए.
अब यहाँ चैन से जीना मुश्किल है....और...चैन से मरना दूभर.
सूखे-भूरे पत्तों पर बूटों की धीमी आवाजों और कोयल की तेज़ कूकों के बीच..जैसे सारे अंतर मिट गए हों... जागने और सोने के, हँसने और रोने के, काटने और बोने के.
और.. क्योकि हम किसी भी तरफ नहीं... इसलिए... मारे जायेंगे... दोनों ही तरफ से.
: राकेश जाज्वल्य. २५.०३.२०११.
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1 comment:
सुंदर अभिव्यक्ति..
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