दिल हमारा सांस गिनते थक गया .
ख़त्म क्यूँ होता नहीं ये सिलसिला.
उफ़ वो ऊँगली, उफ़ वो खंज़र क्या कहें,
उनके हाथों मरने में क्या लुत्फ़ था.
हमने कल उनके सभी ख़त फाड़ कर,
अपनी ख़ामोशी से यूँ बदला लिया.
होते- होते इक हकीकत रह गयी,
बनते- बनते इक फ़साना रह गया.
यूँ लगा जैसे बिखरने हम लगे,
हम से वो इतने तकल्लुफ से मिला.
: राकेश जाज्वल्य. 24.05.12
1 comment:
बढिया शेर
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