Wednesday, September 19, 2012


वही मंजिल है लेकिन क्यूँ.. ये वो मंज़र नहीं लगता.
कशिश हर शय में है लेकिन कोई बेहतर नहीं लगता.
वही कमरे, वही आँगन...... वही सरगोशियाँ लेकिन,
नहीं हो तुम अगर घर में तो घर फिर घर नहीं लगता.


Vahi manzil hai lekin kyun ye vo manzar nahi lagta.
kashish har shay me hai lekin koi behtar nahi lagta.
Vahi kamre, vahi aangan, vahi sargoshiyan lekin,
nahin ho tum agar ghar me to ghar fir ghar nahi lagta.

: राकेश जाज्वल्य 
rakesh jajvalya 01.08.2012