Sunday, March 9, 2014

बचपन, बिल्लस और उम्मीदें..

 
दुनिया अब पहले जैसी नही रही, न रहे... मगर महाभारत से लेकर आज के भारत तक किसी भी दौर में बचपन को यह दुनिया न तो कभी व्यर्थ लगी है और न ही कभी लगेगी. दुनिया बदली तो शहर, गाँव, मुहल्ले, घर और रिश्ते भी सिमट गए ... वो आँगन भी सिमट गया जहाँ खेलों के साथ-साथ भावी नागरिकों के मध्य स्वास्थ्य, समझ और सद्भाव भी सहज ही विकास पाता था. घरों में एक आंगन की कमी गहरे अर्थों में जीवन में उतर आई कई कमियों की ओर संकेत करती है. मगर मौसमों की तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी बचपन के फूल हमेशा अपने खिलने की जगहें तलाश ही लेते हैं. आँगन नहीं तो क्या हुआ.. छतें ही सहीं.
    स्कूलों में, कमरों के भीतर कम्पयूटर पर विडियो गेम्स अपनी जगह, लेकिन.. खुली छत पर "बिल्लस" का मज़ा लेते बच्चे उम्मीदों के नए सूरज उगा देते हैं. 

: राकेश जाज्वल्य. 94255 73812
   02.03.2014
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