Friday, March 12, 2010

तमाम....

पाने की तुझको हो गयी आजमाइशें तमाम।
जैसे के हो गयी हों सभी ख्वाहिशें तमाम।

अटकी हुई हलक पे थी, आकर के जाँ मेरी,
लबों के खोलने से हुई मुश्किलें तमाम।

कहता फिरे काफ़िर मुझे, वाइज़ की है मर्ज़ी,
पैमानों सी धोयीं हैं यूँ, समझाइशें तमाम।

जब भी कोई हँसा, हुआ माहौल ख़ुशनुमा,
याद आई तेरी मुझको दिखी मंज़िलें तमाम।

कहीं रात थी धुआँ-धुआँ, कहीं ज़िस्म भी धुआँ,
धुआँ-धुआँ हुई थी कहीं, बंदिशें तमाम।
-------------------------------------------
: राकेश जाज्वल्य
-------------------------------------------

No comments: