Thursday, April 15, 2010

बाबू जी.…


उनकी यादों की भी कुछ रंगत अलग है.
ऐसा लगता है के धरती पर फ़लक है.

उनके साए में खिले है ख़्वाब कितने,
लोग कहतें है बड़ी सोंधी महक है.

उन निगाहों से उगा करता था कल जो,
आज उस सूरज में भी गीली दहक है.

मैं भी अब लड़ने लगा दुनिया की ख़ातिर,
धडकनों में उनके पैरों की धमक है.

उनके हर इक याद से फैले उज़ाला,
उनकी हर इक बात जुगनू की चमक है.

एक आँगन, थोड़े पौधे, हँसते चेहरे,
बाबू की यादों में बापू की झलक है.
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: राकेश जाज्वल्य.

3 comments:

pallavi trivedi said...

उन निगाहों से उगा करता था कल जो,
आज उस सूरज में भी गीली दहक है.

मैं भी अब लड़ने लगा दुनिया की ख़ातिर,
धडकनों में उनके पैरों की धमक है.

सबके बाबूजी के लिए है ये ग़ज़ल और बहुत खूबसूरत!

संजय भास्‍कर said...

BEAUTIFUL......

संजय भास्‍कर said...

आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।