जाते जाते जब तुमने
दरवाजे को बंद किया था,
उठकर मैंने उसी वक्त
भीतर से कुण्डी लगा ली थी.
खिड़कियों पर मैंने फ़िर
तेरी ना का पर्दा ताना था,
और कमरे में रोशन बातों की
सारी बाती बुझा दी थी.
तेरे ही ख़त चिपकाये थे
रोशनदानों की कांचों पर,
और चुप का मोटा कम्बल डाला था
दिल की कुछ आवाजों पर.
फैली-बिखरी हर चीजों पर,
मुहब्बत का इक गर्द रहा,
आँखों के रिसते पानी से
घर का हर कोना सर्द रहा.
बे-नींद, बे-ख़्वाब निगाहों पर
अब पलकें दर्द से झुकती है,
और
ज़हन के गीले पैरहन में
तेरी याद फफूँद सी उगती है.
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jate-jate jab tumne
darvaje ko band kiya tha,
uthkar maine usi vakt
bhiter se kundi laga li thi.
kidkiyon par maine fir
teri na ka parda tana tha,
aur kamre me roshan baaton ki
sari bati bujha di thi.
tere hi khat chipkaye the
roshandanon ki kaanchon par,
aur chup ka mota kambal daala tha
dil ki kuchh aavazon par.
faili-bikhri har chizon par
muhbbat ka ik gard raha,
aankhon ke riste pani se
ghar ka har kona sard raha.
be-nind, be-khwab nigahon par
ab palken dard se jhukti hain,
aur
zehan ke gile pairahan me
teri yaad fafund si ugti hai.
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; राकेश जाज्वल्य
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