गीली धूप के गाँव में वह इन्द्रधनुष पर रहती है.
उसकी हंसी से फूल नए रंगों में सजती-संवरती है.
चढ़ती है वह मेरे घर की सीढियाँ भी कुछ इस तरह,
जैसे के आँगन में सवेरे हौले धूप उतरती है.
लहरों से जो खेला करती सूरज संग अटखेलियाँ,
तन्हाई में रातों की वो नदी भी रोया करती है.
उसके होने से जैसे हो जाता हूँ मै शख्स नया,
मेरे होने से कुछ उसकी जुबां भी और निखरती है.
इक हल्की शरारत से उसको जब कोई गीत सुनाता हूँ,
इक हल्की सी मुस्कान नई उसके चेहरे पे बिखरती है.
: rakesh jajvalya
2 comments:
बहुत सुन्दर राकेश जी, यह मुस्कान बरकरार रहे.
bahut behtarin...
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