Wednesday, January 6, 2010

लाख पहेली बुझी लेकिन.....

प्यार-मुहब्बत, रिश्ते-नाते,
सपनों-साँसों से जूझ रहा.
लाख पहेली बुझी लेकिन,
मन फिर भी अबूझ रहा.

उम्मीदों के गहरे सागर,
आकांक्षा के नव जलसा-घर,
सोचा करता है यह प्रतिपल,
कुछ घट जाता बाहर-भीतर.

लक्ष्य हजारों, रस्ते लाखों,
राह नयी पर पूछ रहा.
लाख पहेली बुझी लेकिन,
मन फिर भी अबूझ रहा. I1I

चाँद सितारों पर बसता है,
फाका मस्ती में हँसता है,
जब भी इससे बचना चाहें,
हंसकर बाँहों में कसता है.

कभी यह बाबा आदम जैसा,
कभी नया कुछ सूझ रहा.
लाख पहेली बुझी लेकिन,
मन फिर भी अबूझ रहा. I2I
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: राकेश जाज्वल्य.

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