Tuesday, January 26, 2010

दीवारों के फूल....

आज सुबह-सुबह देखा
घर की दीवारों पर
खिल आये है फूल,
कहीं लाल, कहीं पीले,
कहीं नीले- नीले,
ओह .... याद आया...
तुम्हें लिखे ख़त पर
कल छलक गयी थीं
पानी की कुछ बूंदें,
उभर आये थे शब्द,
हलके गीले होकर ,
सहज ही लहरा कर
सुखा दिया था ख़त मैंने
हवा में,
और छिटंक गयी थी
घर की दीवारों पर
स्याही तेरे ख़त की।
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: राकेश

Wednesday, January 20, 2010

ठंड के दिनों की बारिश में...

कुछ यूँ नज़र आती हैं
बारिश के
पानी की बूंदें,
ठंड के दिनों में,
कि जैसे....
सर्द सफ़ेद घने कोहरों की
चादर बुनने की
मेहनत में,
उभर आया हो
पसीना,
मौसम के
मासूम चेहरे पर.

हलकी सी बारिश
ठंड में,
मौसम की
हलकी ठिठुरन
कुछ और बढा देती है.

सहज ही...
हो जाता है मन,
तेरी बांहों के
कम्बल में आने को.

बदल जाता है
अक्सर,
मेरे दिल और ..
कमरे का
मौसम भी,
कुछ इसी तरह.

ठंड के दिनों में,
सुबह-सुबह
तुम अपनी
गीली जुल्फें,
जोर से
झटका ना करो,
जानां !.
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:
राकेश जाज्वल्य.

Saturday, January 9, 2010

आओ हम तुम भी चलें, बन के नयी राह कोई...

आओ हम तुम भी चलें, बन के नयी राह कोई।
क्यूँ ना रक्खें, इस ज़माने से जुदा चाह कोई।


हाँ ये सच है के, होता है हर एक शय का नसीब,
किसने रोका है मगर, थाम लो तुम बांह कोई।


वो जो अपना है, मुकर जाता है इक पल में कभी,
कुछ ना होगा, जो तुम भरते ही रहो आह कोई।


रुको ना तुम, नहीं रुकता कोई किसी के लिए,
उड़ो के अब हमें मंजिल की ना परवाह कोई।


तेरी जमीं में सितारों की तरह ख्वाब उगें,
तेरा वजूद मुकम्मल हो बने छांह कोई ।


यूँ ना संभाले रखो, दिन ये उदासी वाले,
रुत बदलती है के बैठा है कही शाह कोई।


तेरी नज़र का हर एक गीत इतर सा महके,
तुझे दुनिया की निगाहों से मिले वाह कोई।

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: राकेश.

Wednesday, January 6, 2010

लाख पहेली बुझी लेकिन.....

प्यार-मुहब्बत, रिश्ते-नाते,
सपनों-साँसों से जूझ रहा.
लाख पहेली बुझी लेकिन,
मन फिर भी अबूझ रहा.

उम्मीदों के गहरे सागर,
आकांक्षा के नव जलसा-घर,
सोचा करता है यह प्रतिपल,
कुछ घट जाता बाहर-भीतर.

लक्ष्य हजारों, रस्ते लाखों,
राह नयी पर पूछ रहा.
लाख पहेली बुझी लेकिन,
मन फिर भी अबूझ रहा. I1I

चाँद सितारों पर बसता है,
फाका मस्ती में हँसता है,
जब भी इससे बचना चाहें,
हंसकर बाँहों में कसता है.

कभी यह बाबा आदम जैसा,
कभी नया कुछ सूझ रहा.
लाख पहेली बुझी लेकिन,
मन फिर भी अबूझ रहा. I2I
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: राकेश जाज्वल्य.

Saturday, January 2, 2010

हुआ कल शाम हादसा कोई.......

हुआ कल शाम हादसा कोई।
मेरी निगाह आ बसा कोई.
तुमने ताने तार जिस्म के,

दिल पतंग सा उलझा कोई.
ढूंढा मैंने खुद में खुद को,

मिला नहीं पर मुझ-सा कोई.
तुझको पाने में खोने का,

रहता है इक डर-सा कोई.
रात जो काटी जागी-जागी,

ख्वाब आँखों से बरसा कोई।
कहीं, किसी को ताजमहल है,
कहीं, नहीं इक घर सा कोई।
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Huaa kal sham haadsaa koi.
meri nigah aa basa koi.
tumne taane taar zism ke,

dil patang sa uljha koi.
dundha maine khud me khud ko,

mila nahi par mujh-sa koi.
tujhko paane me khone ka,

rahta hai ik dar-sa koi.
rat jo kati jagi-jagi,

khwab aankhon se barsa koi.
kahin, kisi ko taajmahal hai,

kahin, nahin ik ghar sa koi.
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: राकेश जाज्वल्य.