Tuesday, September 7, 2010

री..माई...कासे कहूँ मन-बतियाँ....(गीत)- 1

री ..माई....
कासे कहूँ मन-बतियाँ.
लिख-लिख राखी पतियाँ....री माई.. कासे कहूँ..
१.
खेल - खिलौने मुझसे रूठे,
वो बचपन के दिन भी छूटे,
ये कैसे दिन मुझ पर आये,
काहे अकेलापन मुझे भाये,
काहे ना भाये सखियाँ....री माई...कासे कहूँ..
२.
सूरज छेड़े आँगन- आँगन,
चमकाए मोरे अँखियाँ दरपन,
अब मोहे चंदा ना सुहाए,
छिप कर देखे, क्यों मुस्काए,
नींद ना आये रतियाँ....री...माई... कासे कहूँ..
३.
माई तू मेरी सखी- सहेली,
पर कैसी यह अबूझ पहेली,
यह  कैसा आकाश है भीतर,
उड़ना चाहूँ ले अपने पर।
सपन उगायें अँखियाँ....री..माई...कासे कहूँ..: राकेश जाज्वल्य ०७।०९।१०।
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2 comments:

Dr.J.P.Tiwari said...

Dil ki vyaha ko gahraaiyon ki tah me jaakr bayan karti ek samvedanshil rachna. Badhai.

Dr.J.P.Tiwari said...

खुशहाल घरौंदा, मजबूत रिश्ते,
अटूट बंधन; जब जातें हैं दरक,
बाजी जब हाथ से जाती है सरक.
तब जाकर कहीं होश ठिकाने आता है.
पड़ताल करके भी करोगे क्या अब ?
था जिस पर बहुत भरोसा मुझे;
उसी का नाम बार- बार आता है.

इसीलिए फिर कहता हूँ - मत कूदो;
किसी के अंतरतम में बहुत दूर,
अतल वितल सुदूर गहराइयों तक.
मत निहारो किसी को एक टक,
धरती से अनंत आसमान टक.
मत मानो उसे इंसान से भगवान् तक.

क्योकि जब उतरती जायेगी,
उसके लबादे की एक - एक परत,
हर परत देगी बार - बार एक टीस;
नेत्रों में भर आयेंगे ढेर सारे अश्रु,
समझ नहीं पाओगे, यह मित्र है या शत्रु ?
पत्नी है, भाई है, पुत्री है या फिर ......पुत्र.?