Saturday, September 25, 2010

..आज उसके घर की भी लेकिन बनावट देखिये.

अपने दरवाजे किसी क़दमों की आहट देखिये।
ज़िन्दगी में धूप की फिर गुनगुनाहट देखिये।

गलियाँ यूँ फैलीं शहर में, जैसे की दिल में नसें,
इन में बसकर आप दुनिया की बसाहट देखिये।

आपने तो यूँ हमेशा रूह के सज़दे किये,
आज उसके घर की भी लेकिन बनावट देखिये।

आग के दरिया में है ग़र डूबने की ख़्वाहिशें,
पहले अपने तिश्नगी की छटपटाहट देखिये।

उसकी आँखों से बिखरती काजलों की आड़ में,
मिट रही है उसके ख्वाबों की लिखावट, देखिये।

ऐसे कब वो मानते हैं, हाँ!... हूँ मैं भी इश्क में,
जिक्र पर जब हो तेरा तब मुस्कराहट देखिये।

फिर सुखन की चांदनी सी खिल उठी चारों तरफ,
फिर हुई ..... राकेश के आने की आ हट देखिये।
( yah panktiyan -makta- Vinit ji ne likhin hain. unka dil se shukriya.)

ऐसे कब वो मानते हैं कि उन्हें भी इश्क है,
ज़िक्र पर जब हो मेरा तब मुस्कराहट देखिये!
( यह शेर श्री मिसिर साहब द्वारा भाव रूपांतरित करते हुए पुनःप्रस्तुत । )

: राकेश जाज्वल्य २५.०९.१०
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5 comments:

संजय भास्‍कर said...

किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

गजेन्द्र सिंह said...

बहुत खुबसूरत पंक्तिया है ........

पढ़िए और मुस्कुराइए :-
क्या आप भी थर्मस इस्तेमाल करते है ?

Asha Joglekar said...

बेहद खूबसूरत गज़ल । ये दोनो तो बहुत ही अच्छे लगे ।

गलियाँ यूँ फैलीं शहर में, जैसे की दिल में नसें,
इन में बसकर आप दुनिया की बसाहट देखिये।

आपने तो यूँ हमेशा रूह के सज़दे किये,
आज उसके घर की भी लेकिन बनावट देखिये।

ब्लॉ.ललित शर्मा said...


बेहतरीन लेखन के बधाई

तेरे जैसा प्यार कहाँ????
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें

vandana gupta said...

बहुत ही सुन्दर शेर हैं।