वो इक हवा सी कल मेरी आहों से कह गई।
ज़ानिब मेरी बही मगर राहों में रह गई।
मानिंद इक अल्फाज़ रहा मैं ज़ुबां तलक,
वो सदा सी दिल की निगाहों से बह गई।
बिखरी तो थी हवाओं पर लिखने मुहब्बतें,
ख़ुश्बू जो मुझसे लिपटी तो बाँहों में रह गई।
इक आरजू सी दिल में कभी यूँ उठी तो थी,
ना जाने क्या हुआ कि फिर आहों में रह गई।
मजबूरियों का पेड़ जब उस घर पे जा गिरा,
मजबूत जो दीवार थी चाहों की ढह गई।
वो अपनी ज़िन्दगी से चाहे हो खफ़ा-खफ़ा,
ज़िन्दगी मगर खताएं सब गुनाहों के सह गई। ************************************
: राकेश जाज्वल्य ०४।११।१०
ज़ानिब मेरी बही मगर राहों में रह गई।
मानिंद इक अल्फाज़ रहा मैं ज़ुबां तलक,
वो सदा सी दिल की निगाहों से बह गई।
बिखरी तो थी हवाओं पर लिखने मुहब्बतें,
ख़ुश्बू जो मुझसे लिपटी तो बाँहों में रह गई।
इक आरजू सी दिल में कभी यूँ उठी तो थी,
ना जाने क्या हुआ कि फिर आहों में रह गई।
मजबूरियों का पेड़ जब उस घर पे जा गिरा,
मजबूत जो दीवार थी चाहों की ढह गई।
वो अपनी ज़िन्दगी से चाहे हो खफ़ा-खफ़ा,
ज़िन्दगी मगर खताएं सब गुनाहों के सह गई। ************************************
: राकेश जाज्वल्य ०४।११।१०
2 comments:
खूबसूरत रचना ...टेक्स्ट का रंग थोड़ा गहरा रखें ...पढने में परेशानी होती है
बहुत सुन्दर रचना।
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