चलो उन पर्वतों के ऊपर...
सबसे ऊपर जहाँ सिर्फ आसमान है,
और या फिर खुदा है,
आसमानों के भी ऊपर.
अब पुकारों उन्हें,
उम्मीद है....
यहीं हो पायेगी उनसे बातें,
मांगों जो भी चाहते हो,
मांगों जिसे भी चाहते हो,
मांगों फूल, खुशियाँ, प्यार,
ताजी हवा, समय पर बारिश,
मांगों बच्चों की मुस्काने,
बच्चियों की सुरक्षा भी मांगों.
मांगों.......
सच कहने की हिम्मत.
ताकत मांगों.......
जांत-पांत, भेद- भाव दूर करने के लिये.
आने वाले बच्चों के लिये
सुनहरा कल मांगों,
थोड़ी दुआएं भी मांग लो..
आज के बुजुर्गों के लिए.
कुछ मत छोडो......
सब मांग लो...
और लौटो....खाली हाँथ.
कमबख्तों...
वो सारी चीजें
जो तुम खुद कर सकते हो यहाँ..
इसी जमीं पर.
उसके लिये तो...खुदा भी नहीं सुनेगा तुम्हारी.
* राकेश जाज्वल्य
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5 comments:
सुन्दर रचना
वाह!! बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
खूबसूरत अभिव्यक्ति ...
मंगलवार 15- 06- 2010 को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत बढि़या!
अंत सच है ... खुद ही करना होता है सब कुछ ... और ऊपर वाला तो आँखें बंद करने पर भी दे देता है ...
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