बस्ती का अगर एक भी शख्स परेशान है.
तो हो ख़बर, आफ़त में अब हाकिम की जान है.
बस पुतलियाँ हिलती हैं बेज़ुबान ज़िस्म में,
बिस्तर पर आज कल मेरा हिन्दुस्तान है.
यह भी नहीं पता के कहाँ कौन रह रहा,
किस बात का फिर तू भला, मालिक-मकान है.
मर्जी तुम्हारी, रोओ या चिल्लाओ जोर से,
इन मुर्तिओं के पास कहाँ आँख- कान है.
पैनी करो कलम मगर तलवार भी रखो,
है चक्र भी, ग़र अनसुनी बंशी की तान है.
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: राकेश जाज्वल्य.
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