Monday, June 22, 2009

भीड़ में इक चेहरा पहचाना


भीड़ मे इक चेहरा पहचाना कैसा लगता है।
मुद्दत मे घर लौट कर आना कैसा लगता है।

उनके आने की उम्मीदें हम भी देखा करते हैं,
वो क्या जानें, हर बार बहाना कैसा लगता है।

आँखों में, दिल में, धड़कन में, बस उसकी ही बातें है,
रग -रग में बस एक फ़साना कैसा लगता है।

नए दौर में किससे पूछें, बीते दिनों की बातें हैं,
किसी के वादों पर मर जाना कैसा लगता है।

आँगन में है अमलताश, गुलमोहर भी, कचनार भी,
उस पर अब उनका शरमाना, कैसा लगता है.

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