दर्द से टिसने लगा।
घाव फिर रिसने लगा।
इन दिनों ज़मीर भी,
इन दिनों ज़मीर भी,
ज़िस्म सा बिकने लगा।
इश्क़ छिपाया था दिल में,
आँखों में दिखने लगा।
उसने इक ऊँगली छुई, फिर
कांधों पर टिकने लगा।
दीन-ओ- दुनिया की जतन में,
आदमी पिसने लगा।
कुछ थी उसकी कोशिशें,
कुछ मैं ही मिटने लगा।
---------------------
: राकेश जाज्वल्य
4 comments:
Waaah rakesh bhai..poori ghazal achhi hai..bahut dino bad padha aapko..maza aa gaya
वाह वाह
बहुत अच्छे
विचारणीय रचना
दीन-ओ- दुनिया की जतन में,
आदमी पिसने लगा।
कुछ थी उसकी कोशिशें,
कुछ मैं ही मिटने लगा।
.....bahut khoob!
Post a Comment