अब लट कोई माथे पर झूलती ही नहीं है।
ये गिरह तेरी यादों की खुलती ही नहीं है।
भूला हूँ मैं हर बात, तेरी याद भुलाने,
क्या चीज़ मुहब्बत है, भूलती ही नहीं है।
मैंने कभी सोना, कभी यह ज़िस्म रखा था,
रूह तुमने जो रखा है, वो तुलती ही नहीं है।
है दर्द की डली सी, इस जुबाँ पे ज़िन्दगी,
उम्र पूरी घुल गयी है, ये घुलती ही नहीं है।
ऊँगली दिखा के तुमने जो स्टेचू कह दिया,
हिलती नहीं ये ज़िन्दगी, डुलती भी नहीं है।
पलकों पे यूँ कभी किसी का नाम ना लिखना,
इक बार लिख गयीं तो धुलती ही नहीं है।
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: राकेश जाज्वल्य
5 comments:
बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
ऊँगली दिखा के तुमने जो स्टेचू कह दिया,
हिलती नहीं ये ज़िन्दगी, डुलती भी नहीं है।
बहुत खूबसूरत गज़ल
मैंने कभी सोना, कभी यह ज़िस्म रखा था,
रूह तुमने जो रखा है, वो तुलती ही नहीं है।
"मन को छु की ये पंक्तियाँ...."
regards
Sanjay ji.., Sangeeta ji aur seema ji...aap sab ka dil se aabhar
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