रातों को माजी संग बैठा, अक्सर तारे तोड़ता हूँ।
बालों चाँदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ।
जिनके पहले पन्नो पर, कभी फूल बनाया था तुमने,
उन ख़्वाब-क़िताब निगाहों में, उम्र के पन्ने मोड़ता हूँ।
बस तेरे ही ख्वाब बुने, पलकों के ताने-बाने में,
उन यादों के रेशे ले, अशआर ग़ज़ल में जोड़ता हूँ।
दौर कोई हो, अपनेपन का दौर हमेशा रहता है,
नाहक बदले दस्तूरों पर, ठंडी साँसे छोड़ता हूँ।
जब भी धरा की ख़ुश्बू ले, वो मेरे आँगन आती है,
सूखे - पीले पत्ते गिराकर, मैं हरियाली ओढ़ता हूँ।
रातों को माजी संग बैठा, अक्सर तारे तोड़ता हूँ।
बालों चांदी, आँखों चंदा, सोलह सत्रह जोड़ता हूँ।
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: राकेश जाज्वल्य
2 comments:
दौर कोई हो, अपनेपन का दौर हमेशा रहता है,
नाहक बदले दस्तूरों पर, ठंडी साँसे छोड़ता हूँ।
bahut khoob ...
उत्तम प्रस्तुति।
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