मुझको मेरे दिल ने ठगा था।
वरना तो मैं रचा-पगा* था।
उसकी मूंदी पलकों में भी,
जैसे कोई ख़्वाब जगा था।
रात के जुड़े में इक पूरा,
फूलों वाला चाँद टंगा था।
इश्क में मरने से कुछ थोडा,
जीने का अहसास जगा था।
सुबह तलक लौटा लायेगा,
सूरज लेकर चाँद भगा था।
*रचा-पगा = पारंगत
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: राकेश जाज्वल्य
2 comments:
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
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